SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह तत्रापि निवसेद्धीमान् क्षणं यावत्तदाज्ञया। तदाज्ञामन्तरेणेह न स्थातव्यमुपेक्षया ॥४६ भावनापञ्चकं यावदत्रोक्तं चांशमात्रतः । स्वर्णाद्यपि च नादेयमदत्तं वसनादि वा ॥४७ अत्रापि सन्त्यतीचाराः पञ्चेति सूत्रसम्मताः । त्याज्याः स्तेयपरित्यागवतसंशुद्धिहेतवे ॥४८ उक्तं चस्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहाराः ॥४५ परस्य प्रेरणं लोभात्स्तेयं प्रति मनीषिणा । स्तनप्रयोग इत्युक्तः स्तेयातीचारसंज्ञकः ॥४९ अप्रेरितेन केनापि दस्युना स्वयमाहृतम् । गृह्यते धन-धान्यादि तदाहृतावानं स्मृतम् ॥५० नादेयं दीयमानं वा पुण्यदानेन चापि तत् । स्तेयत्यागवतस्यास्य स्वामिनात्महितैषिणा ॥५१ राज्ञाज्ञापितमात्मेत्थं युक्तं वाऽयुक्तमेव तत् । क्रियते न यदा स स्याद्विरुद्धराज्यातिक्रमः ॥५२ कर्तव्यो न कदाचित्स प्रकृतव्रतधारिणा । आस्ताममुत्र तेनातिरिहानर्थपरम्परा ॥५३ क्रेतं मानाधिकं मानं विक्रेतं न्यनमात्रकम होनाधिकमानोन्माननामातीचारसंज्ञकः ॥५४ बनवाया है उसमें भी यदि कोई श्रावक क्षण भर भी ठहरना चाहे तो उसकी आज्ञा लेकर ठहरना चाहिये, उसकी आज्ञाके विना उपेक्षापूर्वक उसे वापर कभी नहीं रहना चाहिये। अथवा अपने भी बनवाये हुए धर्मस्थानपर यदि कोई सधर्मी आकर ठहरना चाहता है, तो उसे विना किसी विसंवादके ठहरने देना चाहिये। इसको सद्धर्माविसंवाद नामकी पांचवीं भावना कहते हैं ॥४५-४६॥ इस प्रकार यहाँपर पांचों भावनाओंका स्वरूप बहुत हो संक्षेपसे अंशमात्र कहा है। व्रती श्रावकको सोना चाँदी वस्त्र आदि कुछ भी बिना दिया हुआ ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥४७।। इस अचौर्याणुव्रतके भो पांच अतिचार हैं जो सूत्रकारने भी अपने सूत्रमें कहे हैं। चोरीके त्याग करने रूप अचौर्य अणुव्रतको शुद्ध रखनेके लिए व्रती श्रावकको इन पांचों अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये ॥४८॥ सूत्रकारने अतिचारोंको कहनेवाला जो सूत्र कहा है वह यह है चोरीको भेजना, चोरीका माल लेना, राजाको आज्ञाके विरुद्ध चलना, तौलने या नापनेके बाँट गज आदि कमती-बढ़ती रखना या और अधिक मूल्यके पदार्थमें कम मूल्यके पदार्थ मिलाकर चलाना, ये पांच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। आगे इसीका स्पष्टीकरण करते हैं ॥४५॥ किसी लोभके वश होकर अन्य मनुष्योंको चोरी करनेकी प्रेरणा करनेको बुद्धिमान लोग स्तेन प्रयोग कहते हैं । अचौर्याणुव्रतका यह पहला अतिचार है ॥४९॥ जिस किसी चोरको चोरी करनेकी प्रेरणा नहीं की है, बिना प्रेरणा किये ही वह स्वयं चुराकर जो धन-धान्य आदि पदार्थ लाया है उसको ग्रहण करना तदाहृतादाननामका अतिचार कहलाता है ॥५०॥ अपने आत्माका कल्याण करनेवाले और अचौर्याणुव्रतको पालन करनेवाले व्रती श्रावकोंको ऐसा चोरीका धन यदि कोई दे भी तो नहीं लेना चाहिए। यदि कोई पुण्य समझ कर दान देता हो तो भी नहीं लेना चाहिए ॥५१॥ राजा ने कुछ आज्ञा दी है चाहे वह योग्य हो और चाहे वह अयोग्य हो, उसका पालन न करना विरुद्धराज्यातिक्रम नामका अतिचार कहलाता है ॥५२।। अचौर्याणुव्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको राजाको आज्ञाके विरुद्ध कार्य कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि राज्यविरुद्ध कार्य करनेसे परलोकमें दुःख होता है और इस लोकमें अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं। अतएव व्रती श्रावकको इस अतिचारका भी त्याग कर देना चाहिए ॥५३॥ खरीदनेके लिए तौलनेके बांट या नापनेके गज पायली आदि अधिक या बढ़ती रखना और बेचनेके लिए कमती रखना हीनाधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy