SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाटीसंहिता सर्वारम्भेण त्याज्योऽयं गृहस्थेन व्रतार्थिना । इहैवाकोतिसन्तानःस्यादमुत्र च दुःखदः ॥५५ निक्षेपणं समर्थस्य महाघे वञ्चनाशया। प्रतिरूपकनामा स्याद् व्यवहारो व्रतक्षातौ ॥५६ स्तेयत्यागवतारूढे नदियः श्रावकोत्तमैः । अस्त्यतीचारसंज्ञोऽपि सर्वदोषाधिपो महान् ॥५७ उक्तातिचारनिर्मुक्तं तृतीयव्रतमुत्तमम् । अवश्यं प्रतिपाल्यं स्यात्परलोकसुखाप्तये ॥५८ चतुर्थं ब्रह्मचर्य स्याव्रतं देवेन्द्रवन्दितम् । देशतः श्रावकै ह्यं सर्वतो मुनिनायकैः ॥५९ देशतस्तव्रतं धाम्नि स्थितस्यास्य सरागिणः । उदिता धर्मपत्नी या सैव सेव्या न चेतरा ॥६० ब्रह्मवतस्य रक्षार्थ कर्तव्याः पञ्च भावनाः । तल्लक्षणं यथा सूत्रे प्रोक्तमत्रापि चाहृतिः ॥६१ तत्सत्रं यथास्त्रीरागकथाश्रवणतन्मतोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पत्र । प्रसिद्धं विटचर्यादि दम्पत्योर्वा मिथो रतिः । अनुरागस्तद्वार्तायां योषिद्रागकथाश्रुतिः ॥६२ मानोन्मान नामका अतिचार है ॥५४॥ व्रती श्रावकको इस हीनाधिकमानोन्मान नामके अतिचार को पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिए क्योंकि जो गृहस्थ तौलनेके लिए बांटोंको कमती-बढ़ती रखता है या नापनेके गजोंको कमती-बढ़ती रखता है उसकी अपकीर्ति इस समस्त लोकमें फैल जाती है तथा बाँट या गजोंको कमती-बढ़ती रखकर वह दूसरोंको ठगता है इसलिए परलोकमें भी उसे नरकादिकके महादुःख भोगने पड़ते हैं इसलिए व्रती गृहस्थको इस अतिचारका भी सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ॥५५।। दूसरोंको ठगनेको इच्छासे अधिक मूल्यके पदार्थमें जो उसमें अच्छी तरह मिल सके ऐसा कम मूल्यका पदार्थ मिला देना प्रतिरूपक व्यवहार नामका पांचवां अतिचार कहलाता है। इस अतिचारसे यह अचौर्याणुव्रत प्रायः नष्ट हो जाता है ॥५६।। चोरीके त्याग करने रूप अचौर्याणुव्रतको पालन करनेवाले उत्तम श्रावकोंको यह अतिचार कभी नहीं लगाना चाहिए क्योंकि यह अतिचार यद्यपि अतिचार कहलाता है तथापि यह अतिचार सबसे बड़ा और सब दोषोंका अधिपति है ॥५७।। व्रती गृहस्थोंको परलोकके सुख प्राप्त करनेके लिए ऊपर लिखे अतिचारोंको छोड़कर इस तीसरे उत्तम अचौर्याणुव्रतको अवश्य पालन करना चाहिए ।।५८|| अब आगे ब्रह्मचर्याणव्रतका स्वरूप बतलाते हैं। चौथे व्रतका नाम ब्रह्मचर्य व्रत है। सोलह स्वाँके देवोंके इन्द्र भी इस ब्रह्मचर्यव्रतकी वन्दना करते हैं. मनिराज इसका पालन पूर्णरीतिसे करते हैं और श्रावक इसका पालन एकदेश रूपसे करते हैं ॥५९|| घरमें रहनेवाले सरागी गृहस्थोंको इस व्रतका पालन एकदेश रूपसे करना चाहिए। इसी ग्रन्थमें पहले जो धर्मपत्नीका स्वरूप कह आये हैं वह धर्मपत्नी ही गृहस्थोंको सेवन करनी चाहिए । उसके सिवाय अन्य समस्त स्त्रियोंके सेवन करनेका त्याग कर देना चाहिए ॥६०। इस ब्रह्मचर्यव्रतकी रक्षा करने के लिए जो पांच भावनाएं बतलाई हैं उनका भी पालन करना चाहिए तथा उन पांचों भावनाओंका लक्षण जो सूत्रकारने अपने सूत्रमें कहा है वही ग्रहण कर लेना चाहिए ॥६१।। सूत्रकारका वह सूत्र यह है स्त्रियोंकी रागरूप कथा सुननेका त्याग, उनके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग, पहले भोमी हुई स्त्रियोंके स्मरण करनेका त्याग, पौष्टिक रसका त्याग और अपने शरीरके संस्कार करनेका त्याग ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रतकी भावनाएं हैं। इनके पालन करनेसे ब्रह्मचर्यकी रक्षा होती है ॥४६॥. आगे इन्हींका स्वरूप बतलाते हैं-व्यभिचारी लोग जो रागरूप कुचेष्टाएँ करते रहते हैं, अथवा कोई भी स्त्री-पुरुष जो परस्पर कामक्रीड़ा करते रहते हैं उनकी कथा सुननेमें प्रेम रखना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy