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________________ लाटीसंहिता तत्सूत्रं यथा शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसद्धर्मा विसंवादाः पच ॥ ४४ शून्यागारेषु चावासा भूभृतां गह्वरादयः । तदिन्द्रादिविरोधेन न वास्तव्यमिहामुना ||३८ किन्तु प्राक् प्रार्थनामित्यं कृत्वा तत्रापि संविशेत् । प्रसीदाऋत्य भो देव पञ्चरात्रं वसाम्यहम् ||३९ निःस्वामित्वेन संत्यक्ताः गृहाः सन्त्युद्वसाह्वयाः । प्राग्वदत्रापि वर्सात न कुर्यात्कुर्याद्वा तथा ॥४० स्वामित्वेन वसत्यादि परैः स्यादुपरुन्धितम् । परोपरोधाकरणमाहुः सूत्रविशारदाः ॥४१ तत्स्वामिनमनापृच्छ्य स्थातव्यं न गृहिव्रतैः । स्थातव्यं च तमापृच्छ्य दीयमानं तदाज्ञया ॥४२ भैक्ष्यशुद्धचा विसंवादौ भावनीयौ व्रतार्थिना । सर्वतो मुनिनाथेन देशतो गृहमेधिना ||४३ नादेयं केनचिद्दत्तमन्येनातत्स्वामिना । तत्स्वामिनश्च प्रच्छन्नवृत्त्या तत्स्यावदत्तवत् ॥५४ आत्मधर्मः सधर्मी स्यादर्थाज्जैनो व्रतान्वितः । तेन कारापितं यावज्जिन चैत्यगृहादि यत् ॥४५ ११५ सूने मकान में रहना, छोड़े हुए मकानमें रहना, किसीको रोकना नहीं, भोजनकी शुद्धि रखना और धर्मात्माओंके साथ यह तेरा है यह मेरा है, इस प्रकार धर्मोपकरणों में विवाद नहीं करना ये पाँच अचौर्यव्रतकी भावनाएं हैं ॥ ४४ ॥ Jain Education International आगे इन्हींका स्वरूप बतलाते हैं - व्रतियों को पर्वतोंकी गुफा आदि सूने मकानों में ठहरना चाहिये तथा वहाँ पर भी उस स्थानके इन्द्र से या स्वामीसे विरोध कर नहीं रहना चाहिये । यदि व्रत को किसी भी स्थानपर ठहरना हो तो उसे आज्ञा इस प्रकार लेनी चाहिये कि "यहाँ इस स्थानपर रहनेवाले या इस स्थानके स्वामी हैं देव प्रसन्न होओ, मैं यहाँपर पाँच दिनतक ठहरू गा या तीन दिनतक ठहरू गा" इस प्रकार पहले प्रार्थना कर फिर उस स्थानमें प्रवेश करना चाहिये ॥३८-३९।। अपना अधिकार न होनेके कारण जो घर छोड़ दिया गया है उसको छोड़ा हुआ घर कहते हैं । इस छोड़े हुए घरमें भी पर्वतकी गुफा आदि सूने मकानके समान बिना उसके स्वामीकी आज्ञा लिये कभी निवास नहीं करना चाहिये । यदि वहाँ निवास करना हो तो वहाँके इन्द्रकी या वहाँपर रहनेवाले व्यंतरदेवकी ऊपर लिखे अनुसार आज्ञा लेकर निवास करना चाहिये ||४०|| जिस वसतिका आदि स्थानको अन्य लोगोंने स्वामी बनकर रोक रक्खा है उसको शास्त्रोंके जानकार पुरुष परोपरोधाकरण कहते हैं । गृहस्थों को ऐसे स्थानमें उसके स्वामीको बिना पूछे कभी नहीं रहना चाहिये । उसको पूछकर और उसकी आज्ञा मिल जानेपर रहना चाहिये । यदि किसी गुफा आदिमें स्वयं रह रहा हो और अन्य कोई व्रती उसमें आना चाहे तो उसे रोकना नहीं चाहिये, इसीको परोपरोधाकरण कहते हैं ॥ ४१-४२ ॥ | चौथो भावनाका नाम भैक्ष्यशुद्धि और पाँचवीं भावनाका नाम तद्धर्म अविसंवाद है । व्रती श्रावकोंको इन दोनों भावनाओंका पालन भी करना चाहिये । मुनिराज इन दोनों भावनाओंका पालन पूर्ण रीतिसे करते हैं और गृहस्थ श्रावक इनका पालन एकदेश रूपसे करते हैं ||४३|| यदि कोई श्रावक भोजन देवे और वह भोजन उसका न हो किसी अन्यका हो तो उस व्रती श्रावकको नहीं लेना चाहिये । यदि वह भोजन उसीका हो और वह उसे छिपा कर देता हो तो भी उसे विना दिये हुएके समान ही समझना चाहिये । यही श्रावककी भैक्ष्यशुद्धि है ||४४|| जो आत्मके धर्मको पालन करता हो, अथवा जो अपने धर्मको पालन करता हो उसको सधर्मी कहते हैं । इसका भी अभिप्राय यह है कि जो जैन धर्मको धारण करनेवाला व्रती श्रावक है उसको सधर्मी कहते हैं। उसने जो कुछ जिनेन्द्र भवन, चैत्यालय आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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