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________________ ११४ श्रावकाचार-संग्रह अस्ति स्तेयपरित्यागो व्रतं चाणु तथा महत् । देशतः सर्वतश्वापि त्यागद्वै विध्यसम्भवात् ॥३१ तल्लक्षणं तथा सूत्रे सूक्तं सूत्रविशारदैः । अदत्तादानं स्तेयं स्यात्तदर्थः कथ्यतेऽधुना ॥ ३२ अदत्तस्य यदादानं त्रौर्यमित्युच्यते बुधैः । अर्थात्स्वामिगृहीतार्थे सद्द्रव्ये नेतरे पुनः ॥३३ अन्यथा सर्वलोकेऽस्मिन्नतिव्याप्तिः पदे पदे । अनगारैश्च दुर्वारा विशद्भिर्गोपुरादिषु ॥३४ सर्वतः सर्वविषयं देशतस्त्रसगोचरम् । यतः सागारिणां न स्याज्जलादिपरिवर्जनम् ॥३५ देशतः स्तेयं सत्यागलक्षणं गृहिणां व्रतम् । अदत्तं वस्तु नादेयं यस्मिन्नस्ति त्राश्रयः ॥३६ रक्षार्थं तस्य कर्तव्या भावनाः पञ्च नित्यशः । सर्वतो मुनिनाथेन देशतः श्रावकैरपि ||३७ में समझा जाता है । उसमें भी कोई दोष नहीं आता ||३०|| चोरीका त्याग करने रूप अचौर्यव्रत भी दो प्रकार है- एक अणुव्रत और दूसरा महाव्रत । एकदेश चोरीका त्याग करना अचौर्याणुव्रत है और पूर्ण रूपसे चोरीका त्याग कर देना अचौर्य महाव्रत है, इस प्रकार चोरीका त्याग दो प्रकारसे सम्भव हो सकता है ||३१|| सूत्र बनाने अत्यन्त चतुर ऐसे आचार्यवर्य श्री उमास्वामी ने उस चोरीका लक्षण कहते हुए सूत्र लिखा है वह सूत्र “अदत्तादानं स्तेयम्" है अर्थात् बिना दिये हुए पदार्थका ग्रहण करना चोरी है। अब आगे इस सूत्रका अर्थ बतलाते हैं ||३२|| किसी भी बिना दिये हुए पदार्थका ग्रहण करना चोरी है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । इसका भी अर्थ यह है कि जिन पदार्थोंका कोई स्वामी है तथा जो पदार्थ कुछ मूल्यवाले हैं ऐसे पदार्थोंको बिना दिये हुए ग्रहण करना चोरी है। जिन पदार्थों का कुछ मूल्य नहीं है अथवा जिन पदार्थों का कोई स्वामी नहीं है ऐसे पदार्थों को बिना दिये हुए ग्रहण कर लेना गृहस्थोंके लिए चोरी नहीं है ||३३|| यदि चोरीका लक्षण यह माना जायगा तो इस समस्त संसारमें पद-पदपर अतिव्याप्ति दोष मानना पड़ेगा क्योंकि सांसके द्वारा वायुका ग्रहण करना, कर्म नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण करना आदि सब बिना दिये हुए होता है इसलिये वहाँ भी चोरी समझी जायगी परन्तु वहाँ पर चोरी नहीं कही जाती इसलिये चोरीका ऊपर लिखा हुआ लक्षण ही ठीक है । दूसरी बात यह है कि मुनिराज नगरमें जानेके लिए नगरके बड़े दरवाजे में प्रवेश करते हैं वह भी बिना पूछे ही प्रवेश करते हैं इसलिये उसको भी चोरी ही मानना पड़ेगा तथा इस प्रकार माननेसे अचौर्यव्रतका पालना कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव हो जायगा । इसलिये चोरीका लक्षण वही मानना चाहिये जो ऊपर कहा जा चुका है ||३४|| उस चोरीका पूर्ण रूपसे त्याग करना महाव्रत है अर्थात् स और स्थावर दोनों प्रकारके जीवोंको दुःख पहुँचानेवाली चोरी के त्याग करनेको पूर्ण त्याग या अचौर्य महाव्रत कहते हैं, तथा केवल त्रस जीवोंको पीड़ा पहुँचानेवाली चोरोके त्याग करनेको एकदेश अथवा अचौर्याणुव्रत कहते हैं । गृहस्थ लोग अचौर्याणुव्रत ही पालन कर सकते हैं क्योंकि वे गृहस्थ जल मिट्टी आदि सर्वसाधारणके ग्रहण करने योग्य पदार्थोंको विना दिये ग्रहण करने का त्याग नहीं कर सकते ||३५|| एकदेश चोरीका त्याग करना गृहस्थ श्रावकोंका व्रत है । अणुव्रती श्रावकों को जिनमें त्रस जीवोंका आश्रय हो ऐसे कोई भी पदार्थ विना दिये हुए कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये । यही उनका अचौर्याणुव्रत है || ३६ || इस अचौर्यव्रतकी रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएँ हैं वे भी नित्य पालन करनी चाहिये। उन भावनाओंका पालन मुनियोंको पूर्ण रूपसे करना चाहिये और श्रावकोंको एकदेश करना चाहिये ||३७|| इस अचौर्यव्रतकी रक्षा के लिए जो भावनाएँ सूत्रकारने बतलाई हैं वे ये हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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