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________________ लाटोसंहिता किञ्च कश्चिद्यथा सार्थः कस्यचिद्धनिनो गृहे । स्यापयित्वा धनादीनि स्वयं स्थानान्तरं गतः ॥२३ वदत्येवं स लोकानां पुरस्तादिह निह्नवात् । धृतं न मे गृहे किञ्चित्तेनाऽमाऽर्थेन गच्छता ॥२४ उक्तो न्यासापहारः स प्रसिद्धोऽनर्थसूचकः । मृषात्यागवतस्योच्चैः दोषः स्वात्सर्वतो महान् ॥२५ साकारमन्त्रभेदोऽपि दोषोऽतीचारसंज्ञकः । न वक्तव्यः कदाचिद्वै नैष्ठिकैः श्रावकोत्तमैः ॥२६ दुर्लक्ष्यमर्थं गुह्यं यत्परेषां मनसि स्थितम् । कथचिदिङ्गितर्ज्ञात्वा न प्रकाश्यं व्रताथिभिः ॥२७ ननु चैवं मदीयोऽयं ग्रामो देशोऽथवा नरः । इत्येवं यज्जगत्सवं वदत्येतन्मृषा वचः ॥२८ मैवं प्रमत्तयोगाद्वै सूत्रादित्यनुवर्तते । तस्याभावान्न दोषोऽस्ति तद्भावे दोष एव हि ॥२९ एवं संव्यवहाराय स्याददोषा नयात्मके । नाम्नि च स्थापनायां च द्रव्ये भावे जगत्त्रये ॥३० न्यासापहारका यही लक्षण है, जैसे किसी पुरुषके पास कुछ धन था वह अपना सब धन किसी अन्य धनीके यहाँ जमा कराकर या रख कर स्वयं परदेशको चला गया। उस धनको छिपानेके लिए या प्रगट न होने देनेके लिए वह धनी दूसरे लोगोंके सामने यह कहता है कि वह पुरुष मेरे घर तो कुछ नहीं रख गया, वह तो परदेश जाते समय सब धन अपने साथ ले गया है ।।२३-२४॥ ऊपर जो न्यासापहारका स्वरूप बतलाया है वह प्रसिद्ध है और अनेक अनर्थोंको उत्पन्न करनेवाला है। असत्य वचनोंके त्याग करने रूप सत्य अणुव्रतको पालन करनेवाले श्रावकके लिए यह सबसे बड़ा और बहुत बड़ा दोष है। इसका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ॥२५॥ साकारमन्त्रभेद भी सत्याणुव्रतका अतिचार और दोष कहलाता है। नैष्ठिक उत्तम श्रावकको यह साकारमन्त्रभेद भी कभी नहीं कहना चाहिये ॥२६॥ दूसरेके मनमें जो छिपी हुई बात है अथवा कोई ऐसी बात है जो दूसरोंको मालूम नहीं है उस बातको किसी चेष्टासे या किसी इशारे आदिसे जानकर प्रकाशित कर देना साकारमन्त्रभेद कहलाता है। व्रतो श्रावकोंको ऐसी किसी दूसरे के मनकी बात कभी प्रकाशित नहीं करनी चाहिये ॥२७|| कोई शंका करता है कि "यह गांव मेरा है, यह देश मेरा है अथवा यह मनुष्य मेरा है" इस प्रकार जो यह समस्त संसार कहती है वह भी सब मिथ्या वचन हैं। व्रती भी ऐसा बोलते हैं इसलिये असत्यका त्याग व्रतियोंसे भी नहीं हो सकता ॥२८॥ इसका उत्तर देते हुए ग्रन्धकार कहते हैं कि शंकाकारकी यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में जो असत्यका लक्षण “असदभिवानमनृतम्" लिखा है उसमें ऊपरके सूत्रसे "प्रमत्तयोगात्" पदको अनुवृत्ति चली आ रही है। इस अनुवृत्तिके अर्थको मिला देनेसे असत्यका लक्षण "प्रमाद या कषायके निमित्तसे दूसरेकी अनुवृत्तिसे दूसरेकी हिंसा उत्पन्न करनेवाले वचन कहना असत्य है" ऐमा बन जाता है । जहाँ जहाँ प्रमाद या कषाय होते हैं वहीं असत्य होता है। जहां प्रमाद या कषाय नहीं होता वहाँ असत्य भी नहीं होता। संसारमें जो “यह गांव मेरा है या यह देश मेरा है" ऐसा वचन कहा जाता है उसमें प्रमाद या कषाय नहीं हैं केवल अपना निवासस्थान बतलानेके लिए ऐसा कहता है परन्तु जहाँपर उस गांव या उस देशको अपनानेके लिए, उसपर अपना अधिकार जमानेके लिए कषायकी प्रवृत्ति होती है वहांपर वही वाक्य असत्य हो जाता है अतएव उक्त शंका सर्वथा निर्मूल है ॥२९॥ "जहां जहांपर कषाय होता है वहीं पर असत्यता होती है" ऐसा मान लेनेसे नयोंके अनुसार जो एक ही पदार्थका स्वरूप भिन्न-भिन्न रीतिसे कहा जाता है, अथवा संसारमें अपना व्यवहार चलानेके लिए जो नाम स्थापना द्रव्य भाव चार निक्षेप बतलाये हैं उनसे भी पदार्थोका स्वरूप भिन्न भिन्न रीतिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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