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________________ श्रावकाचार-संग्रह आलोचितं च वक्तव्यं न वाच्यमनालोचितम् । चौर्यादिविकथाख्यानं न वाच्यं पापभीरुणा ॥१६ अनासत्यपरित्यागवतेऽतीचारपञ्चकम् । प्रामाणिकं प्रसिद्धं स्यात्सूत्रप्युक्तं महर्षिभिः ॥१७ तत्सू यथा मिथ्योपदेश-रहोऽभ्याख्यान-कूटलेखक्रिया-न्यासापहार-साकारमन्त्रभेदाः ॥४३ तत्र मिथ्योपदेशाख्यः परेषां प्रेरणं यथा । अहमेवं न वक्ष्यामि वद त्वं मम मन्मनात् ॥१८ रहोऽभ्याख्यानमेकान्ते गुह्यवार्ताप्रकाशनम् । परेषां शङ्कया किञ्चिद्धेतोरस्त्यत्र कारणम् ॥१९ कूटलेखक्रिया सा स्याद्वञ्चनार्थं लिपिम॒षा । सा न साक्षात्तथा तस्या मृषानाचारसम्भवात् ॥२० किन्तु स्वल्पा यथा कश्चित्किञ्चित्प्रत्यूहनिस्पृहः । इदं मदीयपोषु मदर्थं न लिपीकृतम् ॥२१ न्यासस्याप्यपहारो यो न्यासापहार उच्यते । सोऽपि परस्य सर्वस्वहरो नैव स्वलक्षणात् ॥२२ . शब्दोंके कहनेसे आसातावेदनीय आदि अशुभ कर्मोका बन्ध अवश्य होता है ।।१५।। अणुव्रती श्रावकोंको जो कछ कहना चाहिये वह सब समझकर शास्त्रोंके अनकल वचन कहने चाहिये। विना सोचे-समझे शास्त्रोंके विरुद्ध वचन कभी नहीं कहने चाहिये, इसी प्रकार पापोंसे डरनेवाले अणव्रती श्रावकोंको चौर कथा. राष्टकथा.भोजनकथा. यद्धकथा आदि विकथाएँ कभी नहीं कहनी चाहिये ॥१६।। अणुव्रती श्रावकोंको इस प्रकार ऊपर लिखी हुई सत्यव्रतकी पाँचों भावनाओंका पालन अवश्य करना चाहिये। इसके पालन करनेसे व्रतोंकी रक्षा होती है। इस असत्य वचनोंके त्याग करने रूप सत्याणुव्रतके पाँच अतिचार हैं। वे पाँचों हो अतिचार प्रसिद्ध हैं और उनको सब मानते हैं। बडे बडे महपियोंने भी सत्रोंमें उनका वर्णन किया है ॥१७॥ वह सूत्र इस प्रकार है मिथ्या उपदेश देना, किसी एकांतमें की हुई क्रियाओंको या कही हुई बातको प्रकट कर देना, झूठे लेख लिखना, किसोका धरोहर मार लेना और किसी भी चेष्टासे किसीके मनकी बात को जानकर प्रकट कर देना ये पांच सत्याणवतके अतिचार हैं ।।४३|| आगे अनुक्रमसे इन्हींका स्वरूप दिखलाते हैं "इस बातको मैं नहीं कहूंगा मेरे मनके अनुसार तू ही कह" इस प्रकार मिथ्यावचन कहनेके लिए दूसरोंको प्रेरणा करना मिथ्योपदेश नामका पहला अतिचार कहलाता है ।।१८। “यहाँ पर कुछ कारण अवश्य है बिना कारणके एकान्तमें कोई बातचीत नहीं करता" इस हेतुसे शंका उत्पन्न कराकर एकान्तमें किसी पुरुषके द्वारा या स्त्री पुरुषोंके द्वारा कही हुई बातोंको या की हुई क्रियाओंको प्रकाशित करना रहोभ्याख्यान कहलता है ॥१९॥ दूसरोंको ठगने के लिए झूठा लेख लिखना या लिखाना कूटलेखक्रिया है। इसमें इतना और समझ लेना चाहिये कि यह झूठा लेख साक्षात् नहीं लिखा जाता, न साक्षात् झूठा लेख लिखाया जाता है क्योंकि यदि साक्षात् झूठा लेख लिखा जाय या लिखाया जाय तब तो वह असत्य वचन रूप अनाचार ही हो जाता है क्योंकि ऐसा करनेसे किसी भी अंशमें सत्यव्रतको रक्षा नहीं होती है किन्तु उसमें थोड़े थोड़े झूठे शब्द मिलाये जाते हैं। जैसे कोई पुरुष अपने ऊपर आई हुई आपत्तिको दूर करनेके लिये कहता है कि "मैंने जो यह अपने पत्रमें लेख लिखा है वह अपने लिये नहीं लिखा है।" सत्याणुव्रतीको ऐसे अतिचारका भी त्याग कर देना चाहिये ।।२०-२१॥ दूसरेकी धरोहरको अपहरण कर लेना, मार लेना, न देना न्यासापहार कहलाता है। उसमें भी इतना विशेष है कि वह दूसरेके समस्त धनका हरण करता है क्योंकि रक्खो हुई धरोहरके कुछ भागको हरण कर लेना ही न्यासापहार कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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