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________________ तत्सूत्रं यथा फाटीसंहिता क्रोष - लोभ- भोरुत्व - हास्य-प्रत्याख्याव्यनुवीचिभाषणं पा ॥४२ यत्र क्रोधप्रत्याख्यानं वचो वाच्यं मनीषिभिः । स्वपराधितभेवेन तद्वचश्च द्विषोच्यते ॥९ स्वयं क्रोधेन सत्यं वा न वक्तव्यं कदाचन । न च वाच्यं वचस्तद्वत्परेषां क्रोधकारणम् ॥१० यथा क्रोधस्तथा मानं माया लोभस्तथैव च । तेषामवद्यहेतुत्वे मृषावादाविशेषतः ॥११ हास्योज्झितं च वक्तव्यं न च हास्याश्रितं क्वचित् । तदपि द्विविधं ज्ञेयं स्वपरोभयभेदतः ॥१२ स्वयं हास्यवता भूत्वा न वक्तव्यं प्रमादतः । न च वाच्यं परेषां वा हास्यहेतुविचक्षणैः ॥१३ हास्योपलक्षणेनैव नोकषाया नवेति थे । तेऽपि त्याज्या मृषात्यागवतसंरक्षणार्थिभिः ॥ १४ भीरुत्वोत्पादकं रौद्रं वचो वाच्यं न श्रावकैः । अवश्यं बन्धहेतुत्वात्तीवासातादिकर्मणाम् ॥१५ वह सूत्र यह है - क्रोधका त्याग, लोभका त्याग, डर या भयका त्याग, हँसीका त्याग और अनुवचिभाषण या निर्दोष अनिन्द्य भाषण ये पाँच सत्याणुव्रतकी भावनाएं हैं ॥४२॥ Jain Education International tt आगे इन्हीं पाँचों भावनाओंका स्वरूप बतलाते हैं बुद्धिमानों को ऐसे वचन कहने चाहिये जिसमें क्रोध उत्पन्न न हो, यही क्रोधका त्याग नामकी पहली भावना है। क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले वचन दो प्रकारके हैं - एक अपने क्रोध से कहे जानेवाले वचन और दूसरे दूसरेको क्रोध उत्पन्न करनेवाले वचन ||९|| अणुव्रती श्रावकको स्वयं क्रोध कर सत्य वचन भी कभी नहीं कहने चाहिये तथा इसी प्रकार ऐसे वचन भी कभी नहीं कहने चाहिये जो दूसरे लोगोंको क्रोध उत्पन्न करने वाले हों ॥ १०॥ जिस प्रकार क्रोधसे कहे जानेवाले वचनोंका त्याग करना बतलाया है उसी प्रकार मान माया और लोभका त्याग भी समझ लेना चाहिये। इसका भी कारण यह है कि क्रोध मान माया वा लोभसे उत्पन्न हुए वचन पापके कारण होते हैं अतएव असत्य वचनोंसे उनमें किसी प्रकारकी विशेषता नहीं होती अर्थात् जो जो वचन कषायोंके वशीभूत होकर कहे जाते हैं अथवा कषायोंको उत्पन्न करनेवाले वचन कहे जाते हैं वे सब प्राणोंको पीड़ा उत्पन्न करनेवाले या पाप उत्पन्न करनेवाले होते हैं इसलिये ऐसे वचन असत्य ही कहे जाते हैं ||११|| अणुव्रती श्रावकको सदा हास्य रहित वचन कहना चाहिये । हँसीसे मिले हुए वचन श्रावकोंको कभी नहीं कहने चाहिये । क्रोध रूप वचनोंके समान हास्य रूप वचन भी दो प्रकार हैं-एक स्वयं हँसीसे कहे जानेवाले वचन और दूसरे दूसरोंको या दोनोंको हँसी उत्पन्न करनेवाले वचन ॥ १२॥ अणुव्रती श्रावकको प्रमादके वशीभूत होकर स्वयं हँसकर वचन कभी नहीं कहने चाहिये। इसी प्रकार चतुर श्रावकोंको ऐसे वचन भी कभी नहीं कहने चाहिये जो दूसरोंको हँसी उत्पन्न करनेवाले हों ||१३|| यहाँपर हास्यशब्द उपलक्षण है इसीलिये हास्य शब्दसे नौ नोकषाय लेने चाहिये । असत्य वचनोंके त्याग करने रूप सत्याणुव्रतको धारण करनेवाले श्रावकोंको उस सत्यामुव्रतकी रक्षा करनेके लिए हास्य के समान हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुवेद और नपुंसकवेद इन नौ नोकषायोंका भी त्याग कर देना चाहिये । अभिप्राय यह है कि कषाय या नोकषायोंसे कहे जानेवाले वचन अथवा कषाय या नोकषायों को उत्पन्न करनेवाले वचन किसी न किसीको दुःख पहुँचानेवाले या प्राणोंको पीड़ा पहुँचानेवाले होते हैं अतएव ऐसे वचन असत्य ही कहे जाते हैं इसीलिए श्रावकोंको ऐसे वचन नहीं कहने चाहिये ||१४|| अणुव्रती श्रावकोंको डर उत्पन्न करनेवाले भयानक शब्द कभी नहीं कहने चाहिये क्योंकि दूसरोंको डरानेवाले भयानक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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