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________________ पंचम सर्ग अप मृषापरित्यागलक्षणं व्रतमुच्यते । सर्वतस्तन्मुनीनां स्याद्देशतो वेश्मवासिनाम् ॥१ प्राद्या तत्रानुवृत्तिः सा प्राग्वदत्रापि धोधनः। प्रोक्तमसदभिधानमनृतं सूत्रकारकैः ॥२ असदिति हिंसाकरमभिधानं स्याद्भाषणम् । शब्दानामनेकार्थत्वाद्गतिश्चानुसारिणी ॥३ नात्रासदिति शब्देन मृषामा समस्यते । साकारमन्त्रभेदादौ सूनृतत्वानुषङ्गतः ॥४ देशतो विरतिस्तत्र सूत्रमित्यनुवर्तते । सबाधाकरं तस्माद्वचो वाच्यं न धीमता ॥५ सत्यमप्यसत्यतां याति कचिद्धिसानुबन्धतः । सर्वतस्तन्न वक्तव्यं यथा चौरादिदर्शनम् ॥६ असत्यं सत्यतां याति कचिज्जीवस्य रक्षणात् । अचक्षुषा मया चोरो न दृष्टोऽस्ति यथाध्वनि ॥७ तनासत्यवचस्त्यागवतरक्षार्थमेव याः । भावनाः पञ्च सूत्रोक्ताः भावनीया व्रताथिभिः ॥८ __ अब आगे असत्य वचनोंका त्याग कर देना ही जिसका लक्षण है ऐसे सत्याणुव्रतका स्वरूप कहते हैं, यह सत्यव्रत पूर्ण रूपसे तो मुनियोंके होता है तथा एकदेश रूपसे गृहस्थोंके होता है ।।१॥ बुद्धिमानोंको अहिंसाणुव्रतमें कहे हुए समस्त कथनकी अनुवृत्ति इस सत्याणुव्रतमें भी ग्रहण करनी चाहिये। सूत्रकारने कहा है “अदसभिवानमनृतम्' अर्थात् प्रमादके योगसे असत्य वचन कहना अनृत या झूठ है ॥२॥ आगे असत् और अभिधान दोनोंका अलग अलग अर्थ कहते हए दिखलाते हैं। हिंसा करनेवालेको असत् कहते हैं तथा भाषण करने, कहने या बोलनेको अभिधान कहते हैं। इन दोनों शब्दोंका मिलाकर अर्थ करनेसे यही अर्थ निकलता है कि जो जो वचन हिंसा करनेवाले हैं उन सबको अनृत कहते हैं। यद्यपि असत् शब्दके अनेक अर्थ होते हैं तथापि उनका अर्थ वही लिया जाता है जो प्रकरणके अनुसार ठीक बैठता है ।।३।। यहाँ पर असत् शब्दका अर्थ केवल झूठ बोलना मात्र नहीं लेना चाहिये, क्योंकि यदि असत् शब्दका अर्थ केवल झूठ बोलना लिया जायगा तो साकार मन्त्र भेद आदि जो झूठके भेद हैं उनमें कुछ बोलना नहीं पड़ता इसलिये ऐसे झूठको सत्यमें ही शामिल करना पड़ेगा ॥४॥ सूत्रमें जो 'असदभिधानमनृतम्' लिखा है उसमें “एकदेश रूपसे त्याग करना" इस वाक्यकी अनुवृत्ति चली आ रही है। इस अनुवृत्तिको मिलानेसे इस सबका यही अर्थ होता है जो हिंसा करनेवाले वचन हैं उनका एकदेश त्याग करना सत्याणुव्रत है अतएव बुद्धिमान् श्रावकोंको ऐसे वचन कभी नहीं कहना चाहिये जिनके कहनेसे त्रस जीवोंकी हिंसा होना सम्भव हो ॥५॥ जिस सत्य वचनके कहनेसे त्रस जीवोंकी हिंसा होना सम्भव हो ऐसे सत्यवचन भी कभी कभी असत्य ही कहलाते "जैसे इस चोरको चोरी करते हुए मैंने देखा था" ऐसा कहनेसे उसको दंड दिया जा सकता है अतएव ऐसे सत्यवचन कहना भी हिंसा करनेवाले वचन हैं, ऐसे सत्यवचत भी असत्य वचन कहलाते हैं ऐसे वचन अणुव्रती श्रावकोंको कभी नहीं बोलने चाहिये ॥६।। इसी प्रकार कहीं कहीं पर जीवोंकी रक्षा होनेसे असत्य वचन भी सत्य कहलाते हैं। जैसे मुझे दिखाई नहीं देता इसलिये मार्गमें मैंने किसी चोरको नहीं देखा ॥७॥ इस असत्यवचनोंके त्याग करने रूप सत्याणुव्रतकी रक्षा करनेके लिए सूत्रकारने पाँच भावनाएं बतलाई हैं । अणुव्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको उन भावनाओंका पालन भी अच्छी तरह करते रहना चाहिये ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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