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लाटीसंहिता छेदो नासादिछिद्रार्थः काष्ठसूलादिभिः कृतः । तावन्मात्रातिरिक्तं तन्न विधेयं प्रतिमान्वितैः ॥२६५ सापराधे मनुष्यादौ कर्णनासादि छेदनम् । न कुर्याद् भूपकल्पोऽपि व्रतवानपि कश्चन ॥२६६ भारः काष्ठादिलोष्ठान्नघृततैलजलादिकम् । नेतं क्षेत्रान्तरे क्षिप्तं मनुजांश्चत्रिकादिषु ॥२६७ यावद्यस्यास्ति सामर्थ्य तावत्तत्रैव निक्षिपेत् । नातिरिक्तं ततः क्वापि निक्षिपेद् व्रतधारकः ॥२६८ दासी-दासादिभृत्यानां बन्धु-मित्रादिप्राणिनाम् । सामर्थ्यातिक्रमः क्वापि कर्तव्यो न विचक्षणः ॥२६९ अन्नपाननिरोधाख्यो व्रतदोषोऽस्ति पञ्चमः । तिरश्चां वा नराणां वा गोचरः स स्मृतो यथा ॥२७० नराणां गोमहिष्यादितिरश्चां वा प्रमादतः । तृणाद्यन्नादिपातानां विरोधो व्रतदोषकृत् ॥२७१ बहुप्रलपितेनालं ज्ञेयं तात्पर्यमात्रतः । सा क्रिया नैव कर्तव्या यथा त्रसवधो भवेत् ॥२७२ इत्युक्तमात्रदिग्मानं सागाराहमणुवतम् । त्रसहिंसापरित्यागलक्षणं विश्वसाक्षिभिः ॥२७३ इति श्रावकाचारापरनामलाटीसंहितायां त्रसहिंसापरित्यागप्रथमाणुव्रतवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥४॥ कस कर बाँधना अतिचार है ।।२६४॥ प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रतको पालन करनेवाले श्रावकोंको नाक छेदनेके लिए सुई सूजा या लकड़ी आदिसे जो छेद करना पड़ता है वह भी उतना ही करना चाहिए जितनेसे काम चल जाय, उससे अधिक छेद नहीं करना चाहिये। दुःख देनेवाला अधिक छेद करना अतिचार है ॥२६५।। यदि कोई राजाके समान व्रती मनुष्य हो तथा उसे अपराधी मनुष्योंको दण्ड देनेका पूर्ण अधिकार हो तो भी उसे अपराधी मनुष्योंके भी नाक कान आदि नहीं काटने चाहिए ।।२६६॥ इसी प्रकार किसी मनुष्य या पशुपर उसकी सामर्थ्यसे अधिक बोझा लादना भी अतिचार है। यदि किसी व्रती श्रावकको काठ, पत्थर, लोहा, अन्न, घी, तेल, जल आदि पदार्थ एक स्थानसे दूसरे स्थानमें ले जाना हो अथवा किसी मनुष्य या स्त्रीको डोलीमें बिठाकर दूसरे किसी स्थानमें ले जाना हो तो जिस मनुष्य या पशुकी जितनी सामर्थ्य है उसपर उतना ही बोझ रखना चाहिये, अणुव्रती श्रावकोंको उनको शक्तिसे अधिक बोझा कभी नहीं रखना चाहिये। अधिक बोझा लादना अहिंसाणुव्रतका चौथा अतिचार है ॥२६७-२६८॥ चतुर श्रावकोंको उचित है कि वे दास दासी आदि नौकर चाकरोंसे अथवा भाई मित्र आदि कुटुम्बीजनोंसे काम लेवें तो उनकी शक्तिसे अधिक काम नहीं लेना चाहिये । उनको शक्तिका अतिक्रम कभी नहीं करना चाहिये । शक्तिसे अधिक काम लेना या शक्तिसे अधिक बोझा लादना या शक्तिसे अधिक चलाना आदि सब अहिंसाणुव्रतका अतिचार है ।।२६९|| इस अहिंसाणुव्रतका पाँचवाँ अतिचार अन्न-पान निरोध है वह भी मनुष्य और पशु दोनोंके लिए होता है। भावार्थ-दासी दास भाई बन्धु पुत्र स्त्री आदि अपने आश्रित मनुष्योंको या पशुओंको समयपर भोजन न देना अथवा उनको भूखे प्यासे रखना या कम भोजन देना आदि अहिंसाणुव्रतका पाँचवाँ अतिचार है ॥२७०॥ प्रमादसे दासी दासादिक मनुष्योंको या गाय भैंस आदि पशुओंको भोजन या घास जल आदि खानेपीनेकी सामग्रीको उनको देनेसे रोक देना, न देने देना अहिंसाणुव्रतका अतिचार है ॥२७१।। बहुत कहनेसे क्या, सबका अभिप्राय यह समझ लेना चाहिये कि अणुव्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको ऐसी कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिये जिसमें त्रस जीवोंकी हिंसा होतो हो ॥२७२।। इस प्रकार ऊपर जो कुछ कहा गया है, जो जो त्याग बतलाया है, जिन जिन क्रियाओंका निषेध किया है, जिन जिन व्यापारोंका निषेध किया है वह सब गृहस्थोंके द्वारा पालन करने योग्य त्रस जोवोंकी हिंसाका त्याग करने रूप अहिंसाणुव्रत है ऐसा भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है ॥२७३॥ इस प्रकार लाटीसंहितामें त्रसहिंसाके त्याग करने रूप अहिंसाणुव्रत नामके प्रथम
अणुव्रतको वर्णन करनेवाला यह चौथा सर्ग समाप्त हा ॥४॥
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