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________________ १०८ श्रावकाचार-संग्रह अस्ति चालोकितपानभोजनाल्याथ पञ्च ताः। भावना भावनीया स्यादहिंसावतहेतवे ॥२५७ शुद्धं शोधितं चापि सिद्धं भक्तादिभोजनम् । सावधानतया भूयो दृष्टिपूतं च भोजयेत् ॥२५८ न चानध्यवसायेन दोषणानवधानतः । मया दृष्टचरं चैतन्मत्वा भोज्यं न भोजयेत् ॥२५९ तत्र यद्यपि भक्त्यादि शुद्धमस्तीति निश्चितम् । तथापि दोष एव स्यात्प्रमादादिकृतो महान् ॥२६० सन्ति तत्राप्यतीचाराः पञ्च सूत्रेऽपि लक्षिताः । त्रसहिंसापरित्यागलक्षणेऽणुव्रताह्वये ॥२६१ तत्सूत्रं यथा बन्धबधच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ॥४१ अत्रोक्तं बधशब्देन ताडनं यष्टिकादिभिः । प्रागेव प्रतिषिद्धत्वात्प्राणिहत्या न श्रेयसी ॥२६२ पशूनां गोमहिष्यादिछागवारणवाजिनाम् । तन्मात्रातिरिक्तां बाधां न कुर्याद्वा कशादिभिः ॥२६३ बन्धो मात्राधिको गाढं दुःखदं शृङ्खलादिभिः । आतताया (?) प्रमादाद्वा न कुर्याच्छावकोत्तमः ॥२६४ इस प्रकार चार भावनाओंका स्वरूप कहा। पाँचवीं भावनाका नाम आलोकितपानभोजन है। आलोकितपानभोज़न दिनमें सूर्यके प्रकाशमें देख-शोध कर भोजन करनेको कहते हैं। इसका पालन भी गृहस्थोंको अवश्य करना चाहिये। इस प्रकार पाँचों भावनाओंका स्वरूप कहा । अणुव्रती श्रावकोंको अहिंसाव्रत पालन करने के लिए इन पांचों भावनाओंको अच्छी तरह पालन करना चाहिए तथा अच्छी तरह चितवन करना चाहिये ।।२५७।। जो दाल भात आदि भोजन तैयार किया हुआ है वह चाहे शुद्ध हो और खूब अच्छी तरह शोध लिया हो तथापि उसे फिर भी अच्छी तरह देख कर बड़ी सावधानीके साथ भोजन करना चाहिये ॥२५८।। अपने अज्ञानसे या किसी अन्य दोषसे अथवा असावधानीसे ऐसा कभी नहीं मानना चाहिये कि यह भोजन मेरा देखा हुआ है अथवा मेरा शुद्ध किया है तथा ऐसा मान कर बिना देखे शोधे कभी भोजन नहीं करना चाहिये ॥२५९।। यद्यपि उस भोजनमें यह निश्चित है कि यह भोजन शुद्ध है, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है तथापि यदि बिना देखे-शोधे भोजन किया जायगा तो प्रमाद या अज्ञानसे उत्पन्न हुआ महा दोष लगेगा ॥२६०॥ तत्त्वार्थसूत्रमें त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करने रूप अहिंसा अणुव्रतके पांच अतिचार बतलाये हैं ।।२६१॥ मारना, बांधना, छेदना, अधिक बोझा लादना तथा अन्नपानका रोक देना ये पाँच अहिंसा अणुव्रतके अतिचार हैं ॥४१॥ आगे इन्हींका स्वरूप यथाक्रमसे दिखलाते हैं। यहाँपर बध शब्दसे या मारना शब्दसे लकड़ी आदिसे मारना लेना चाहिये। प्राणोंका नाश करना नहीं लेना चाहिये क्योंकि प्राणोंकी हत्या करना तो पहले ही छोड़ा जा चुका है, उसका त्याग पहले ही किया जा चुका है, प्राणोंकी हत्या करना कभी कल्याण करनेवाली नहीं है इसलिये उसका तो सर्वथा त्याग करना बतलाया है और सबसे पहले उसका त्याग बतलाया है। प्राणोंकी हत्याका त्याग करके किसी भी पुरुष या पशुको लकड़ी बेत थप्पड चूंसा आदिसे मारना अतिचार कहलाता है ॥२६२।। गाय भैंस बकरी हाथी घोड़ा आदि पशुओंको कोड़ा, पैना, लकड़ी आदिसे उनकी शक्तिसे अधिक बाधा नहीं पहुंचाना चाहिये ॥२६३।। अणुव्रत धारण करनेवाले उत्तम श्रावकोंको अपने क्रूर परिणामोंसें अथवा प्रमादसे गाय भैंस आदि पशुओंको सांकल रस्सी आदिसे इस प्रकार कसकर नहीं बाँधना चाहिये जिससे उनको दुःख पहुंचे अथवा जिस बन्धनको वह सहन न कर सके । उसको दुखदायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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