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________________ लाटीसंहिता श्रवणाद्धिसकं शब्दं मारयामोति शब्दवत् । दग्बो मृतः स इत्यादि श्रुत्वा भोज्यं परित्यजेत् ॥२४८ शोकाश्रितं वचः श्रुत्वा मोहाद्वा परिवेवनम् । वोनं भयानकं श्रुत्वा भोजनं त्वरितं त्यजेत् ॥२४९ उपमानोपमेयाभ्यां तदिदं पिशिताविवत् । मनःस्मरणमात्रत्वात्कृत्स्नमन्नादिकं त्यजेत् ॥२५० सूतकं पातकं चापि यथोक्तं जैनशासने । एषणाशद्धिसिद्धयर्थवर्जयेच्छावकाग्रणीः ॥२५१ एषणासमितिः ख्याता संक्षेपात्सारसंग्रहात् । तत्रान्तराद्विशेषज्ञैर्ज्ञातव्याऽस्ति सुविस्तरात् ॥२५२ अस्ति चादाननिक्षेपस्वरूपा समितिः स्फुटम् । वस्त्राभरणपात्रादिनिखिलोपधिगोचराः २५३ यावन्त्युपकरणानि गृहकर्मोचितानि च । तेषामादाननिक्षेपौ कर्तव्यो प्रतिलेख्य च ॥२५४ प्रतिष्ठापननाम्नी च विख्याता समितिर्यथा । श्रवद्धपुर्दशद्वारा मलमत्रादिगोचरा ॥२५५ . निश्च्छिद्रं प्रासुकं स्थानं सर्वदोषविजितम् । दृष्ट्वा प्रमायं सागारो वर्षोमूत्रादि निक्षिपेत् ॥२५६ या इसमें चमड़ेके बर्तन में रक्खे हुए घी, दूध, तेल, पानी आदि पदार्थ मिले हुए हैं और इसीलिए यह भोजन अशुद्ध या सदोष हो गया है" ऐसा किसी भी सूक्ष्म इशारेसे या किसी भी सूक्ष्म चेष्टा से मालूम हो जाय तो उसी समय आहार छोड़ देना चाहिये । ये सब चखनेके अन्तराय हैं ॥२४७॥ में इसको मारता हूँ इस प्रकारके हिंसक शब्दोंको सुनकर अथवा वह जल गया, मर गया इस प्रकारके हिंसक शब्दोंको सुनकर भोजनका परित्याग कर देना चाहिये। ये सुननेके अन्तराय हैं ।।२४८।। अथवा शोकसे उत्पन्न होनेवाले वचनोंको सुनकर या किसीके मोहसे अत्यन्त रोनेके शब्द सुनकर अथवा अत्यन्त दीनताके वचन सुनकर या अत्यन्त भयंकर शब्द सुनकर शीघ्र ही भोजन छोड़ देना चाहिये । ये सुननेके अन्तराय हैं ॥२४९।। "यह भोजन मांसके समान है या रुधिरके समान है अथवा विष्ठाके समान है" इस प्रकार किसी भी उपमेय या उपमानके द्वारा मनमें स्मरण हो आवे तो भी उसी समय समस्त जलपानादिका त्याग कर देना चाहिए। ("यह भोजन मांसके समान है" इस प्रकारका स्मरण हो आना उपमेयके द्वारा होनेवाला स्मरण कहलाता है तथा "मांस भी ऐसा ही होता है" इस प्रकारका स्मरण होना उपमानके द्वारा होनेवाला स्मरण कहलाता है) ॥२५०॥ अणुव्रतोंको पालन करनेवाले श्रावकोंको अपने भोजनोंकी शुद्धि बनाए रखनेके लिए अथवा एषणासमितिको शुद्ध रीतिसे पालन करने के लिए जैनशास्त्रोंमें बतलाए हए सूतक पातकोंका भी त्याग कर देना चाहिये ॥२५१।। इस प्रकार अत्यन्त संक्षेपसे तथा सबका थोड़ा थोड़ा सार कहकर एषणासमितिका स्वरूप बतलाया। विशेष विद्वानोंको यदि विस्तारके साथ इसका स्वरूप जानना हो तो अन्य शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये ॥२५२।। चौथी समितिका नाम आदाननिक्षेपण समिति है। अणुव्रती श्रावकोंको इसका भी पालन करना चाहिए। वस्त्र, आभरण, बर्तन आदि घरके जितने पदार्थ हैं या जितने पदार्थ घरके काममें आते हैं उन सबको देख-शोध कर उठाना या रखना चाहिये जिससे किसी जीवका घात न हो जाय, इसीको आदाननिक्षेपण समिति कहते हैं ॥२५३-२५४॥ पाँचवों समितिका नाम प्रतिष्ठान समिति या उत्सर्ग समिति है । वह भी अणुव्रती श्रावकोंको पालन करनी चाहिए। इस शरीरके दश द्वार हैं-दो नेत्र, दो कान, दो नाक, एक मुँह, एक गुदा, एक गुह्य न्द्रिय और एक ब्रह्मांड द्वार इस प्रकार दश द्वार हैं। इन दश द्वारोंसे मल सूत्र कफ मैल आदि पदार्थ सदा बहते रहते हैं । उन सब मलोंको तथा विशेषकर मल मूत्रको ऐसे स्थानपर छोड़ना चाहिये जो छिद्र रोहित हो, प्रासुक या निर्जीव हो और समस्त दोषोंसे रहित हो ऐसे स्थानको देख कर और शोध कर अणुव्रती श्रावकोंको मल आदि छोड़ना चाहिये जिससे किसी जीवका घात न हो ।।२५५-२५६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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