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________________ लाटीसंहिता १०५ एषणासमितिर्नाम्ना संक्षेपाल्लक्षणादपि । आहारशुद्धिराख्याता सर्वव्रतविशुद्धये ॥२३१ उक्तमांसाद्यातीचारैर्वजितो योऽशनादिकः । स एव शुद्धो नान्यस्तु मांसातीचारसंयुतः ॥२३२ सोऽपि शुद्धो यथाभक्तं यथाकालं यथाविधिः । अन्यथा सर्वशुद्धोऽपि स्यावशुद्धवदेनकृत् ॥२३३ काले पूर्वाह्णके यावत्परतो परालेपि च । यामस्या न भोक्तव्वं निशायां चापि दुर्दिने ॥२३४ याममध्ये न भोक्तव्यं यामयुग्मं न लङ्घयेत् । आहारस्यास्त्ययं कालो नौषधादेर्जलस्य वा ॥२३५ सङ्ग्रामादिदिने हिंस्र चन्द्रसूर्याद्युपग्रहे । अन्यत्राप्यवयोगेषु भोजनं नैव कारयेत् ॥२३६ उच्यते विधिरत्रापि भोजयेन्नाशुचिगृहे । तमश्छन्नेऽथ त्रसादिबहुजन्तुसमाश्रिते ॥२३७ जैमनीयादिजीवानां हिंस्राणां दृष्टिगोचरे । अश्वादिपशुसंकोणे स्थाने भोज्यं न जातुचित् ॥२३८ है क्योंकि विना आहारके यह शरीर टिक नहीं सकता और उस आहारका प्राप्त होना एषणा समितिके पालनसे ही होता है ॥२३०।। समस्त व्रतोंको शुद्ध पालन करनेके लिए आहारको शुद्धि रखना ही एषणासमिति है तथा संक्षेपसे यही एषणासमितिका लक्षण है ॥२३१।। पहले जो मांस मद्य मधु उदम्बर आदिके अतिचार बतलाए हैं उनसे रहित भोजन करना शुद्ध आहार कहलाता है । जिस भोजनमें मांसादिकके अतिचार लगें वह भोजन कभी शुद्ध नहीं कहला सकता ॥२३२॥ अणुव्रती श्रावकोंको वह शुद्ध और यथायोग्य भोजन भी समयके अनुसार और विधिके अनसार ग्रहण करना चाहिए। यदि वह भोजन समय और तिथिके अनुसार ग्रहण न किया गया हो तो सब प्रकारसे शद्ध होनेपर भी वह अशद्ध और पाप उत्पन्न करनेवाला कहलाता है।२३३॥ भोजनका समय दोपहरसे पहले पहले है अथवा दोपहरके बाद दिन ढलेका समय भी भोजनका समय है, अणुव्रती श्रावकोंको सूर्य निकलनेके बाद आधे पहरतक भोजन नहीं करना चाहिये, इसी प्रकार सूर्य अस्त होनेके आधे पहर पहले भोजन कर लेना चाहिये । इसी प्रकार अणुव्रती श्रावकको रातमें सर्वथा भोजन नहीं करना चाहिये तथा जिस दिन पानी बरस रहा हो, काली घटा छायी हो और उस घटाके कारण अन्धेरा-सा हो गया हो उस समय भी भोजन नहीं करना चाहिये ।।२३४॥ अणुव्रती श्रावकोंको प्रायः पहले पहरमें भोजन नहीं करना चाहिये । (क्योंकि वह समय मुनियोंके भोजनका समय नहीं है। मुनिलोग प्रायः दूसरे पहरमें भोजनके लिए निकलते हैं तथा मुनियोंको आहार देकर या उस समयतक पात्रकी प्रतीक्षा कर भोजन करना श्रावकका कर्तव्य है अतएव श्रावकोंको पहले पहरमें भोजन नहीं करना चाहिये।) इसी प्रकार अणवती श्रावकोंको दोपहरका समय उल्लंघन भी नहीं करना चाहिये । यह भोजनका समय बतलाया है, औषधि और जलका समय नहीं बतलाया । अतः वह उन्हें ले सकता है ॥२३५।। जिस दिन कोई भारी युद्ध हो रहा हो, अथवा जिस दिन अनेक जीवोंकी हिंसा हो रही हो, जिस दिन सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण पड़ रहा हो तथा इनके सिवाय और भी अशुभयोग जिस दिन हों उस दिन अणुव्रती श्रावकको उचित है कि वह भोजन न करे ॥२३६।। आगे भोजनकी विधि बतलाते हैं। अपवित्र घरमें कभी भोजन नहीं करना चाहिए। जिस घरमें अन्धेरा हो वहाँपर कभी भोजन नहीं करना चाहिए तथा जिस घरमें या जिस स्थानमें त्रस और स्थावर आदि अनेक प्रकारके बहुतसे जीवोंका समुदाय हो, जहाँपर बहुतसे त्रस या स्थावर जीव भरे हों वहाँपर कभी भोजन नहीं करना चाहिये ॥२३७॥ जहाँपर घोड़े, गाय, बैल आदि पशु बांधे जाते हों ऐसे संकीर्ण या छोटे स्थानमें भी कभी भोजन नहीं अरना चाहिये, इसी प्रकार जहाँपर यज्ञ आदिमें मारे १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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