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________________ १०४ श्रावकाचार-संग्रह यावत्तस्योपसर्गस्य निवृत्तिर्वा वपुःक्षतिः । यद्वावधि यथाकालं नीत्वाऽस्तीतस्ततो गतिः ॥ २२१ सर्वारम्भेण तात्पर्य प्रत्यक्षात्त्रससङ्कुले । मार्गे पादौ न क्षेप्तव्यौ व्रतिनां मरणावधि ॥ २२२ किञ्च रजन्यां गमनं न कर्तव्यं दीर्घेऽध्वनि । दृष्टिचरे शुद्धे स्वल्पे न निषिद्धा मार्गे गतिः ॥ २२३ अश्वाद्यारोहणं मार्गे न कार्यं व्रतधारिणा । ईर्यासमिति संशुद्धिः कुतः स्यात्तत्र कर्मणि ॥ २२४ इतीयांसमितिः प्रोक्ता संक्षेपाद् व्रतधारिणः । यद्वोपासकाध्ययनात् ज्ञातव्यातीतविस्तरात् ॥ २२५ अप्यस्ति भाषा समितिः कर्तव्या सग्रवासिभिः । अवश्यं देशमा त्रत्वात्सर्वथा मुनिकुञ्जरैः ॥२२६ वचो धर्माश्रितं वाच्यं वरं मौनमथाऽऽश्रयेत् । हिंसाश्रितं न तद्वाच्यं भाषासमितिरिष्यते ।। २२७ इति संक्षेपतस्तस्या लक्षणं चात्र सूचितम् । मृषात्याग व्रताख्याने वक्ष्यामीषत्सविस्तरात् ॥२२८ एषणासमितिः कार्या श्रावकैर्धर्मवेदिभिः । यया सागारधर्मस्य स्थितिर्मुनिव्रतस्य च ।। २२९ यतो व्रतसमूहस्य शरीरं मूलसाधनम् । आहारस्तस्य मूलं स्यादेषणासमितावसौ ||२३० वीरकर्म कहते हैं । इस वीरकर्म में उस श्रावकको जबतक वह उपसर्ग दूर न हो जाय, अथवा जबतक अपना शरीर नाश न हो जाय तबतक वहींपर विराजमान रहना पड़ता है, अथवा जबतक उसकी मर्यादाका समय पूरा हो जाय अथवा इधर-उधरसे जानेका मार्ग हो जाय, तबतक उसको वहीं रहना पड़ता है || २२० - २२१ || इस समस्त कथन कहनेका अभिप्राय यह है कि जो मार्ग प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले त्रस जीवोंसे भरा हो उस मार्ग में अणुव्रती श्रावकको मरनेका समय आनेपर भी अपने पैर नहीं रखने चाहिये ॥ २२२ ॥ | इसी प्रकार अणुव्रती श्रावकको किसी लम्बे मार्ग में रातको नहीं चलना चाहिये परन्तु जो मार्ग नेत्रोंसे देखा हुआ है, शुद्ध है और छोटा है उस मार्ग में रातमें चलनेका निषेध नहीं है ॥२२३॥ अणुव्रती श्रावकको घोड़े गाड़ी आदिको सवारीपर चढ़कर भी मार्ग में नहीं चलना चाहिये, क्योंकि घोड़े आदिको सवारीपर चढ़कर चलने में उसके ईर्यासमितिकी शुद्धि किस प्रकार हो सकती है || २२४|| इस प्रकार अणुव्रती श्रावकोंके पालन करने योग्य ईर्यासमितिका स्वरूप अत्यन्त संक्षेपसे बतलाया । इसका विशेष स्वरूप या विस्तारपूर्वक स्वरूप उपासकाध्ययनोंसे या श्रावकाचारोंसे जान लेना चाहिये || २२५ || दूसरी समितिका नाम भाषासमिति है । उस भाषासमितिका एकदेश पालन गृहस्थोंको अवश्य करना चाहिये, क्योंकि इसका पूर्ण पालन मुनिराज ही करते हैं || २२६ || अणुव्रती श्रावकोंको धर्मरूप ही वचन कहने चाहिये । यदि धर्मरूप वचन कहते न बने तो फिर मौन धारण करना चाहिए । जिन वचनोंसे हिंसा होना सम्भव हो, अथवा जो वचन हिंसात्मक हों ऐसे वचन श्रावकोंको कभी नहीं कहने चाहिये । हिंसात्मक वचन कहनेका त्याग करना और धर्मरूप वचन कहना ही श्रावकोंके लिये भाषासमिति कही जाती है || २२७|| इस प्रकार यहाँपर संक्षेपसे भाषासमितिका स्वरूप कहा है। इसका थोड़ा-सा विशेष स्वरूप अथवा थोड़े-से विस्तार के साथ इसका स्वरूप आगे सत्याणुव्रतका स्वरूप करते समय कहेंगे ॥२२८|| तीसरी समितिका नाम एषणासमिति है । धर्मके स्वरूपको जाननेवाले श्रावकोंको इस • एषणा समितिका पालन भी अवश्य करना चाहिये क्योंकि गृहस्थ धर्मकी स्थिति और मुनियोंके व्रतोंकी स्थिति इस एषणा समितिपर ही निर्भर है || २२९ ॥ गृहस्थों को एषणासमितिका पालन करना अत्यावश्यक है, क्योंकि व्रतोंके समूहको पालन करनेका मूल साधन शरीर है । यदि शरीर न हो तो कोई किसी प्रकारका तप वा व्रत पालन नहीं हो सकता तथा शरीरका मूल साधन आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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