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________________ लाटीसंहिता १० दृष्टिपूतं यथाऽऽदानं निक्षेपोऽपि यथा स्मृतः । दृष्ट्वा स्थानादिकं शुद्ध तत्र तानि विनिक्षिपेत् ॥२११ इतः समितयः पञ्च वक्ष्यन्ते नातिविस्तरात् । ग्रन्थगौरवतोऽप्यत्र नोक्तास्ताः संयतोचिताः ॥२१२ संयतासंयतस्यास्य प्रोक्तस्य गृहमेधिनः । समितयो या योग्याः स्युर्वक्ष्यन्ते ताः क्रमादपि ॥२१३ ईर्यासमितिरप्यस्ति कर्तव्या गृहमेधिना। अर्याशब्दो वाच्योऽस्ति मार्गोऽयं गतिगोचरः ॥२१४ दृष्ट्वा दृष्ट्वा शनैः सम्यग्युगदघ्नां धरां पुरः । निष्प्रमादो गृही गच्छेदोर्यासमितिरुच्यते ॥२१५ किञ्च तत्र विवेकोऽस्ति विधेयस्त्रसरक्षकैः । बहुत्रसाकुले मार्गे न गन्तव्यं कदाचन ॥२१६ तत्र विचार्या प्रागेव देशकालगतिर्यथा। प्रष्टव्याः साघवो यद्वा तत्तन्मार्गावलोकिनः ॥२१७ निश्चित्य प्रासुकं मार्ग बहुत्रसैरनाश्रितम् । ईर्यासमितिसंशुद्धस्तत्र गच्छन्न चान्यथा ॥२१८ गच्छंस्तत्रापि दैवाच्चेत्पुरोमार्गस्त्रसाकुलः । तदा व्याघुट्टनं कुर्यात्कुर्यादवा वीरकर्म तत् ॥२१९ वीरकर्म यथा तत्र पर्यङ्काद्यासनेन वा । कायोत्सर्गेण वा तिष्ठेद्योगिवद्योगमार्गवित् ॥२२० बातका ध्यान रखना चाहिये ॥२१०॥ जिस प्रकार उस पदार्थको नेत्रोंसे देखकर उठाया था उसी प्रकार नेत्रोंसे देखकर तथा कोमल वस्त्रसे झाड़कर शोधकर उस पदार्थको रखना चाहिये, तथा रखते समय जिस स्थानपर रखना हो उस स्थानको भी नेत्रोंसे देख लेना चाहिये, तथा कोमल वस्त्रसे झाड़कर शुद्ध कर लेना चाहिये । इस प्रकार स्थान और पदार्थ दोनोंको देख-शोधकर तब उस पदार्थको रखना चाहिये, इस प्रकार संक्षेपसे श्रावकोंके पालन करने योग्य कायगुप्तिका स्वरूप कहा ॥२११॥ अब आगे संक्षेपसे पांचों समितियोंका स्वरूप कहते हैं। यहाँपर केवल अणुव्रती श्रावकोंके पालन करने योग्य समितियोंका स्वरूप कहते हैं। ग्रन्थ बढ़ जानेके डरसे मुनियोंके पालन करने योग्य समितियोंका स्वरूप इस ग्रन्थमें नहीं कहा है ।।२१२।। ऊपर जिस अणुव्रती श्रावककी क्रियाओंका वर्णन करते चले आ रहे हैं ऐसे संयतासंयत गृहस्थके पालन करने योग्य जो समितियाँ हैं उन्हींको यहाँपर क्रमसे कहते हैं ॥२१३।। पांचों समितियोंमें पहली ईर्यासमिति है वह भी अणुव्रती श्रावकको पालन करनी चाहिये । यहाँपर ईर्या शब्दका अर्थ मार्गमें गमन करना है ।।२१४।। गृहस्थोंको आगेकी चार हाथ जमीन देखकर तथा प्रमादको छोड़कर धीरे-धीरे अच्छी तरह बार-बार देखते हुए गमन करना चाहिये, इसीको ईर्यासमिति कहते हैं ॥२१५।। इसमें भी त्रस जीवोंकी रक्षा करनेवाले श्रावकोंको बहुत-सा विचार करना चाहिये और वह विचार यह है कि श्रावकोंको ऐसे मार्ग में कभी भी गमन नहीं करना चाहिये जिसमें बहुत-से त्रसजीव भरे हों ॥२१६॥ देश और कालकी गतिके अनुसार उसका विचार पहलेसे ही कर लेना चाहिये अथवा उस मार्गको देखनेवाले सज्जन लोगोंसे पूछ लेना चाहिये ॥२१७॥ गमन करनेके पहले यह निश्चय कर लेना चाहिये कि जिस मार्गसे जाना है वह प्रासुक है या नहीं, अथवा वह अनेक त्रस जीवोंसे रहित है या नहीं जब वह मार्ग प्रासुक वा जीव जन्तुओंसे रहित हो तथा उसमें त्रस जीवोंका आश्रय न हो तब ईर्यासमितिसे उस मार्गको शोधते हुए गमन करना चाहिए। यदि ऐसा मार्ग न हो तो उस मार्गसे कभी गमन नहीं करना चाहिये ॥२१८॥ जिस मार्गका प्रासुक होने तथा प्रस जीवोंसे रहित होनेका निश्चय हो चुका है उस मार्गमें गमन करते हुए यदि दैवयोगसे आगेका मार्ग त्रस जीवोंसे भरा हुआ हो तो वहाँसे लौट आना चाहिये, अथवा वहींपर बैठकर वीरकर्म करना चाहिये ॥२१९॥ आगे वीरकर्मका स्वरूप कहते हैं-योगकी विधिको जाननेवाला जो श्रावक योगियोंके समान पर्यंकासनसे अथवा कायोत्सर्गसे एक स्थानपर विराजमान होता है उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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