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________________ श्रावकाचार-संग्रह इत्याखालम्बनांश्विते भावयेद् भावशुद्धये । न भावयेत्कदाचिद्वै श्रसहिंसां क्रियां प्रति ॥ २०२ उक्त वाग्गुप्तिर व मनोगुप्तिस्तथैव च । अघुना कायगुप्तेश्च भेदान् गृह्णाति सूत्रवित् ॥२०३ तोर्यादाननिःक्षेपभावनाः कायसंश्रिताः । भावनीयाः सदाचारैराजवंजवविच्छिदे ॥२०४ अत्रेर्यावचनं यावद्धर्मोपकरणं मतम् । तस्याऽऽदानं च निक्षेपः समासात्तत्तथा स्मृतः ॥२०५ अस्यार्थो मुनिसापेक्ष: पिच्छका च कमण्डलुः । त्रसरक्षाव्रतापेक्षः पूजोपकरणानि च ॥ २०६ घण्टा चामरदीपाम्भःपरछत्रध्वजादिकान् । स्नानाद्यर्थं जलादींश्च धौतवस्त्रादिकानपि ॥२०७ देशनावसरे शास्त्रं दानकाले तु भोजनम् । काष्ठपट्टादिकं शुद्धं काले सामायिकेऽपि च ॥२०८ इत्याद्यनेकभेदानि धर्मोपकरणानि च । निष्प्रमादतया तत्र कार्यो यत्नो बुधैर्यथा ॥ २०९ हृग्भ्यां सम्यग्निरीक्ष्यादौ यत्नतः प्रतिलेखयेत् । समादाय ततस्तत्र कार्ये व्यापारयत्यपि ॥ २१० १०२ करना चाहिये, अथवा जिन जिन मुनियोंके दर्शन किये हुए हों उनका चिन्तवन करना चाहिये, जिन जिन जिनालयोंके दर्शन किये हों उन जिनालयोंका चिन्तवन करना चाहिये तथा भगवान् जिनेन्द्रदेवके अभिषेककी विधि या पूजाकी विधि आदिका चिन्तवन करना चाहिये || २०१ || अपने परिणामोंको शुद्ध रखनेके लिए इस प्रकार ऊपर लिखे हुए परिणामोंको निर्मल रखनेके जितने साधन हैं उन सबका चिन्तवन करते रहना चाहिये, परन्तु जिनमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती हो ऐसी क्रियाओंका चिन्तवन कभी नहीं करना चाहिये || २०२ || इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार वचनगुप्ति और मनोगुप्तिका स्वरूप बतलाया, अब आगे जैनसूत्रोंके जाननेवाले विद्वान् कायगुप्तिके भेदोंको इस प्रकार ग्रहण करते हैं ॥ २०३ || ईर्या आदाननिक्षेपण भावनाएं शरीरके आश्रित हैं अतएव संसारके दुःखोंको नाश करनेके लिए अणुव्रत आदि सदाचरणोंको पालन करनेवाले श्रावकोंको इन भावनाओंका पालन अवश्य करना चाहिये || २०४ || यहाँपर ईर्या शब्दका अर्थ धर्मोपकरण है तथा आदान शब्दका अर्थ ग्रहण करना और निक्षेप शब्दका अर्थ रखना है। उन धर्मोपकरणोंका ग्रहण करना तथा रखना सो संक्षेपसे ईर्यादान निक्षेप भावना कहलाती है ॥२०५॥ इसका भी अर्थ यह है कि मुनियोंके धर्मोपकरण पीछी और कमण्डलु हैं तथा त्रस जीवोंकी रक्षा करने रूप अणुव्रतोंको धारण करनेवाले श्रावकोंके धर्मोपकरण पूजाके उपकरण हैं अर्थात् पूजाकी सामग्री, बर्तन, स्थान, पुस्तक आदि पूजा करनेमें जो जो पदार्थ काममें आते हैं वे सब पूजाके उपकरण कहलाते हैं || २०६ || इनके सिवाय घंटा, चमर, दीपक, जल, छत्र, ध्वजा, स्नान करनेका जल और धुले हुए वस्त्र आदि भी सब पूजामें काम आते हैं इसलिए ये सब भी पूजाके उपकरण कहलाते हैं || २०७|| जो श्रावक धर्मोपदेश देता है उस समय उसका उपकरण शास्त्र है, जिस समय वह दान देता है उस समय बना हुआ तैयार भोजन भी उसका धर्मोपकरण है तथा सामायिकके समय बैठनेका आसन वा काठका पाटा आदि धर्मोपकरण है । अभिप्राय यह है कि धार्मिक क्रियाओंमें जो जो पदार्थ काम आते हैं वे सब धर्मोपकरण कहलाते हैं ||२०८ || इस प्रकार श्रावकोंके धर्मोपकरणोंके अनेक भेद हैं । बुद्धिमानोंको इन सब कार्योंमें सब तरहका प्रमाद छोड़ कर यत्न वा यत्नाचार करना चाहिये । वह यत्नाचार किस प्रकारका करना चाहिये इसी बातको आगे दिखलाते हैं ||२०९|| सबसे पहले उन पदार्थोंको नेत्रोंसे अच्छी तरह देख लेना चाहिये, फिर यत्नाचारपूर्वक उसको कोमल वस्त्रसे झाड़ पोंछ लेना चाहिये और फिर उसको वहाँसे उठाना चाहिये । इस प्रकार उस धर्मोपकरणको उठाकर फिर उसको जिस कार्य में लगाना हो उस कार्य में लगाना चाहिये । उस धर्मोपकरणसे कार्यं लेते समय भी किसी जीवका घात न हो जाय, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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