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________________ archifहता मनोगुप्तिर्यथानाम सच्छेदे न चिन्तयेत् । समुत्पन्नेऽपि तत्कार्ये जने वा सापराविनि ॥१९२ सङ्ग्रामादिविधौ चिन्तां न कुर्यान्नैष्ठिको व्रती । अव्रतो पाक्षिकीः कुर्याद्देवयोगात्कदाचन ॥१९३ नैष्ठिकोऽपि यदा क्रोधान्मोहाद्वा सङ्गरक्रियाम् । कुर्यात्तावति काले स भवेदात्मव्रताच्च्युतः ॥१९४ सहसा क्रियायां वा नाऽपि व्यापारेयन्मनः । मोहाद्वापि प्रमादाद्वा स्वामिकार्ये कृतेऽपि वा ॥ १९५ वीतरागोक्तधर्मेषु हिसावद्यं न वर्तते । रूढिधर्मादिकार्येषु न कुर्यात्त्रसहिंसनम् ॥ १९६ रूढिधर्मे निषिद्धा चेत्कामार्थयोस्तु का कथा । मज्जन्ति द्विरदा यत्र मशकास्तत्र किं पुनः ॥१९७ हृषीकार्थादिदुर्ध्यानं वञ्चनार्थं स नैष्ठिकः । चिन्तयेत्परमात्मानं स्वं शुद्धं चिन्मयं महः ॥१९८ यद्वा पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपं चिन्तयेन्मुहुः । यद्वा त्रैलोक्यसंस्थानं जीवांस्तद्वर्तिनोऽथवा ॥१९९ arcarस्वभाव वा चिन्तयेत्तन्मुहुर्मुहुः । द्वादशात्राऽप्यनुप्रेक्षाः धारयेन्मनसि ध्रुवम् ॥ २०० यद्वा दृष्टिचरात्र जिनबिम्बांश्च चिन्तयेत् । मुनीन् देवालयांश्चापि तत्पूजादिविधीनपि ॥२०१ एकदेश मनोगुप्तिका स्वरूप बतलाते हैं । यदि किसी त्रस जीवके छेदन भेदन करनेका कार्य आ पड़े अथवा कोई अपराधी जीव सामने आ जाय तो भी अणुव्रती श्रावकको त्रस जीवोंके छेदन भेदन करनेके लिए कभी चिन्तवन नहीं करना चाहिये ॥ १९२॥ व्रतोंको धारण करनेवाले नैष्ठिक श्रावकको युद्ध आदिका चिन्तवन कभी नहीं करना चाहिये । जो अव्रती पाक्षिक श्रावक हैं वे दैवयोग से कभी कभी युद्धादिकका चिन्तवन करते हैं || १९३ || यदि कोई व्रतों को करनेवाला नैष्ठिक श्रावक तीव्र क्रोधके उदयसे अथवा मोहनीय कर्मके उदयसे युद्ध करनेमें लग जाय तो वह जितने कालतक युद्ध करता है उतने कालतक अपने व्रतोंसे रहित हो जाता है || १९४ || इसी प्रकार अणुव्रती श्रावकको मोहसे अथवा प्रमादसे त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवाली क्रियाओं में अपना मन कभी नहीं लगाना चाहिये । यदि ऐसा कोई कार्य अपना न हो किन्तु अपने स्वामीका हो तो उस अपने स्वामीके ऐसे त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवाले कार्यों में भी व्रती श्रावकको अपना मन नहीं लगाना चाहिये || १९५ ॥ | यह निश्चित सिद्धान्त है कि वीतराग सर्वज्ञदेव भगवान् अरहन्तदेवके कहे हुए धर्म में तो हिंसा करनेवाले पाप कार्य हैं ही नहीं तथा जो रूढ़िसे माने हुए धार्मिक कार्य हैं उनके लिए भी अणुव्रती श्रावकोंको कभी भी त्रस जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये || १९६ || अणुव्रती श्रावकों को यह स्वयं ही समझ लेना चाहिये कि जब रूढिसे माने गये धार्मिक कार्योंमें ही सजीवों की हिंसाका निषेध किया गया है तो फिर अर्थ और काम पुरुषार्थ के लिए तो कहना क्या है क्योंकि जहाँपर बड़े बड़े हाथो डूब जाते हैं वहाँपर मच्छरोंकी तो बात ही क्या है || १९७|| इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न हुए आर्तध्यान या रौद्रध्यानोंसे बचनेके लिए, अथवा किसी भी प्रकार के अशुभ ध्यानसे बचने के लिए व्रतोंको धारण करनेवाले नैष्ठिक श्रावकको सदा परमात्माका चिन्तवन करते रहना चाहिये अथवा शुद्ध चैतन्यस्वरूप और देदीप्यमान अपने आत्माका चिन्तवन करना चाहिये || १९८ | अथवा अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पाँचों परमेष्ठियोंके स्वरूपका बार बार चिन्तवन करते रहना चाहिये, अथवा तीनों लोकोंके आकारका तथा तीनों लोकोंमें भरे हुए जीवोंके स्वरूपका चिन्तवन करते रहना चाहिये ॥ १९९॥ अथवा जगत् और कायके स्वभावका चिन्तवन बार बार करते रहना चाहिये । तथा अणुव्रती श्रावकको अपने मनमें बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करते रहना चाहिये ||२००|| अथवा जहाँ जहाँ पर भगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाओंके दर्शन किये हों उन सबका चिन्तवन Jain Education International १०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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