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________________ श्रावकाचार-संग्रह यथा समितयः पञ्च सन्ति तित्रश्च गुप्तयः । अहिंसावतरक्षार्थ कर्तव्या देशतोऽपि तैः ॥१८५ उक्तं तत्त्वार्थसूत्रेषु यत्तत्रावसरे यथा । व्रतस्थैर्याय कर्तव्या भावना पञ्च पञ्च च ॥१८६ तत्सूत्रं यथा तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३९ तत्रापि हिंसात्यागवतरक्षाय वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४० न चाऽऽशक्यमिमाः पञ्च भावना मुनिगोचराः । न पुनर्भावनीयास्ता देशतो व्रतधारिभिः ॥१८७ यतोऽत्र वेशशब्दो हि सामान्यावनुवर्तते । ततोऽणुव्रतसंज्ञेषु व्रतत्वान्नाव्यापको भवेत् ॥१८८ अलं विकल्प-संकल्पैः कर्तव्या भावना इमाः । अहिंसावतरक्षार्थ देशतोऽणुव्रतादिवत् ॥१८९ तत्र वाग्गुप्तिरित्युक्ता असबाधाकरं वचः । न वक्तव्यं प्रमादाद्वा बध-बन्धादिसूचकम् ॥१९० अवश्यम्भाविकार्येऽपि वक्तव्यं सकृदेव तत् । धर्मकार्येषु वक्तव्यं यद्वा मौनं समाश्रयेत् ॥१९१ हैं। जिस प्रकार पाँचों महाव्रतोंका पालन करना मुनियोंका कर्तव्य है उसी प्रकार पाँच समिति और तीन गुप्तियोंका पालन करना भी मुनियोंका कर्तव्य है अतएव अणुव्रती श्रावक जिस प्रकार पांचों व्रतोंको एकदेशरूपसे पालन करता है उसी प्रकार अहिंसाणुव्रतकी रक्षा करनेके लिये श्रावकोंको एकदेशल्पसे समिति और गुप्तियोंका पालन अवश्य करना चाहिये ।।१८५।। अहिंसा अणुव्रतका स्वरूप कहते समय तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि व्रतोंको स्थिर रखनेके लिये प्रत्येक व्रतको पांच पांच भावना करनी चाहिये ॥१८॥ सत्त्वार्थसूत्रका वह सूत्र यह है। उन व्रतोंको स्थिर रखनेके लिए प्रत्येक व्रतकी पाँच पांच भावनाएं हैं। उसमें भी अहिंसाणुव्रतकी रक्षा करनेके लिए ये पाँच भावनाएं हैं-वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये पांच अहिंसाणुव्रतकी भावनाएं हैं ॥३९-४०॥ आगे संक्षेपसे इन्हीं भावनाओंका निरूपण करते हैं-कदाचित् यहाँपर कोई यह कहे कि इन भावनाओंका पालन करना मुनियोंका ही कर्तव्य है, एकदेशव्रतको धारण करनेवाले अणुव्रती श्रावकोंको इन भावनाओंके पालन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, परन्तु यहाँपर ऐसी शंका करना सर्वथा अनुचित है, कभी नहीं करनी चाहिये क्योंकि गृहस्थोंके व्रतोंमें एकदेश शब्द सामान्य रीतिसे चला आ रहा है इसीलिए वह एकदेश शब्द अणुव्रतोंमें भी व्यापक नहीं है अर्थात् अव्यापक है क्योंकि अणुव्रत भी व्रत है ॥१८७-१८८। इस विषयमें अनेक संकल्प-विकल्प उठाने से कोई लाभ नहीं है । यह निश्चित सिद्धान्त है कि श्रावक जिस प्रकार अहिंसावतकी रक्षा करने के लिए व्रतोंका एकदेश रूपसे वा अणुव्रत रूपसे पालन करता है उसी प्रकार उसको उसी अहिंसाव्रतकी रक्षा करनेके लिए इन भावनाओंका पालन करना चाहिये ॥१८९|| अब आगे इन पांचों भावनाओंमेंसे वचन गुप्तिका स्वरूप कहते हैं । वचनयोगको अपने वशमें रखना वचनगुप्ति है। गृहस्थ उसको पूर्णरूपसे पालन नहीं कर सकता इसलिए उसे ऐसे वचन नहीं कहने चाहिये जिससे अस जीवोंको बाधा पहुँचे, अथवा प्रमादसे ऐसे वचन भी नहीं कहने चाहिये जो त्रस जीवोंके बध बन्धन आदिको सूचित करनेवाले हों ।।१९०।। जो कार्य अवश्य करने पड़ेंगे उनके लिए एक वार कहना चाहिये । यह नियम रखना चाहिये कि धर्म कार्योंमें तो सदा कहना वा बोलना चाहिये । धर्म कार्योंके सिवाय बाकीके कार्यों में मौन धारण करना चाहिये ॥१९१।। आगे गृहस्थोंके लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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