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लाटी संहिता
उक्तं च
मिच्छो हु महारंभो निस्सीलो तिव्वलोहसंजुत्तो । निरयाउगं णिबद्धद्द पावमयो रुहपरिणामो ॥३८ क्रूरं कृष्यादिकं कर्म सर्वतोऽपि न कारयेत् । वाणिज्यार्थं विदेशेषु शकटादि न प्रेषयेत् ॥ १७७ क्रयविक्रयवाणिज्ये क्रयेद्वस्तु त्रसोज्झितम् । विक्रयेद्वा तथा वस्तु नूनं सावद्यर्वाजितम् ॥१७८ वाणिज्यार्थं न कर्तव्योऽतिकाले धान्यसंग्रहः । घृततैलगुडादीनां भाण्डागारं न कारयेत् ॥ १७९ लाक्षालोष्टक्षणक्षारशस्त्रचर्मादिकर्मणाम् । हस्त्यश्ववृषादीनां चतुष्पदानां च यावताम् ॥१८० द्विपदानां च वाणिज्यं न कुर्याद्वतवानिह । महारम्भो भवत्येव पशुपाल्यादिकर्मणि ॥ १८१ शुककुर्कुरमार्जारी कर्पािसहमृगादयः । न रक्षणीयाः स्वामित्वे महाहिंसाकरा यतः ॥११८२ इत्यादिकाश्च यावन्त्यः क्रियास्त्रसबधात्मिकाः । कर्तव्यास्त्रसानां ह्यहिंसाणुव्रतधारिभिः ॥ १८३ सर्वसागारघर्मेषु देशशब्दोऽनुवर्तते । तेनानगारयोग्यायाः कर्तव्यास्ता अपि क्रियाः ॥ १८४
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कहा भी है- जो मिथ्यादृष्टि है, महारम्भ करनेवाला है, शीकरहित है, तीव्र लोभके वशीभूत है, पापरूप क्रियाओंको करनेवाला है और रौद्रपरिणामी है वह नरक आयुका बन्ध करता है ||३८||
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अणुव्रती श्रावकोंको परिणामों में क्रूरता उत्पन्न करनेवाले खेती आदिके कार्य पूर्ण रूपसे छोड़ देना चाहिये तथा व्यापार करनेके लिए ( किसी मालको भेजने वा मँगानेके लिए ) विदेशोंको गाड़ी आदि नहीं भेजने चाहिये || १७७ || यदि किन्हीं पदार्थोंके खरीदने या बेचनेका व्यापार करना हो तो ऐसे पदार्थोंको खरीदना चाहिये जिनमें त्रस जीव न हों तथा जिनके खरीदनेमें बहुत सा पापकार्यं न हो। इसी प्रकार ऐसे ही पदार्थ बेचने चाहिये जिनमें त्रस जीव न हों और जिनके बेचने में अधिक पाप न हो ॥ १७८ ॥ व्यापार करनेके लिये गेहूँ जो आदि धान्योंका संग्रह बहुत दिन तक नहीं करना चाहिये, इसी प्रकार गुड़ तैल और घी आदि पदार्थोंका भंडार भी नहीं रखना चाहिये ॥ १७९ ॥ लाख, गूगुल, नील, लोहा, खार, शस्त्र, चमड़ा आदिका व्यापार नहीं करना चाहिये तथा इसी प्रकार हाथी घोड़ा बैल आदि पशुओंका व्यापार भी नहीं करना चाहिये ॥१८०॥ अणुव्रती श्रावकोंको दास दासी आदिका व्यापार भी नहीं करना चाहिये तथा पशुओंके पालनेका व्यापार भी नही करना चाहिये, क्योंकि पशुओं के पालन करने आदिमें भी महा आरम्भ होता है || १८१|| तोते, कुत्ते, बिल्ली, बन्दर, सिंह, हिरण आदि पशुओंको भी नहीं पालना चाहिए क्योंकि ये सब पशु या जानवर महा हिंसा करनेवाले हैं । जो श्रावक इन पशुओंको पालकर इनका स्वामी बनता है वह भी इनकी हिंसाके सम्बन्धसे महा हिंसक कहलाता है ॥ १८२॥ त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करनेवाले अहिंसाणुव्रती श्रावकोंको ऊपर लिखी क्रियाओंके समान त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवाली समस्त क्रियाओंका त्याग कर देना चाहिए || १८३ ॥ अहिंसा अणुव्रतीके कर्तव्य ऊपर दिखला चुके हैं। इनके सिवाय इतना और समझ लेना चाहिये कि गृहस्थोंके धर्म में देश शब्द लगा हुआ है अर्थात् गृहस्थोंका घर्मं एकदेश धर्म है और मुनियोंका धर्म सर्वदेश या पूर्ण धर्म है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मुनियोंका जो धर्म है उसीको एकदेशरूपसे पालन करना गृहस्थोंका धर्म है अतएव अणुव्रती श्रावकोंको मुनियों के करने योग्य क्रियाओंमेंसे जो जो क्रियाएँ गृहस्थ पालन कर सकते हैं, अथवा उन क्रियाओंके जितने अंशोंको पालन कर सकते हैं, उतनी क्रियाओंको अथवा उन क्रियाओके उतने अंशोंको अवश्य पालन करना चाहिए || १८४॥ आगे उन्हीं क्रियाओंको बतलाते
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