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________________ ९८ श्रावकाचार-संग्रह अयं भावो व्रतस्थाने या क्रियाऽभिमता सताम् । तां सामान्यतः कुर्वन्सामान्ययम उच्यते ॥१६८ प्रतिमायां क्रियायां तु प्रागेवात्रापि सूचिता । यावज्जीवं हि तां कुर्वनियमोऽनवधिः स्मृतः ॥१६९ उक्तं सम्यक् परिज्ञाय गृहस्थो व्रतमाचरेत् । यथाशक्ति यथाकालं यथादेशं यथावयः ॥१७० अहिंसाक्रियात्यागो यदि कतुं न शक्यते । व्रतस्थानाग्रहेणालं दर्शनेनैव पूर्यताम् ॥१७१ व्रतस्थानक्रियां कर्तुमशक्योऽपि यदीप्सति । व्रतंमन्योऽपि संमोहाद व्रताभासोऽस्ति न व्रती ॥१७२ अलं कोलाहलेनालं कर्तव्याः श्रेयसः क्रियाः । फलमेव हि साध्यं स्यात्सर्वारम्भेण धीमता ॥१७३ त्रसहिंसाक्रियात्यागशब्दः स्यादुपलक्षणम् । तेन भूकायिकादींश्च निःशङ्कं नोपमर्दयेत् ॥१७४ किन्तु चैकाक्षजीवेषु भूजलादिषु पञ्चसु । अहिंसावतशुद्धयर्थ कर्तव्यो यत्नो महान् ॥१७५ त्रसहिंसाक्रियात्यागी महारम्भं परित्यजेत । नारकाणां गतेोजं ननं तदुःखकारणम ॥१७६ है कि दर्शनप्रतिमामें तो श्रावक नियमका पालन करता है और व्रत प्रतिमामें यमका पालन करता है ॥१६७।। इसका भी अभिप्राय यह है कि व्रत प्रतिमामें सज्जनोंके लिये जो क्रियाएं बतलाई हैं उनको जो सामान्य रीतिसे या एक देशरूपसे पालन करता है उसको सामान्य यम कहते हैं तथा दर्शनप्रतिमामें जो क्रियाएं पहले बतलाई हैं उनको जो पुरुष जीवन पर्यन्त पालन करता है उसको अनवधि नियम अथवा जीवनपर्यन्त होनेवाला नियम कहते हैं ॥१६८-१६९।। ऊपर जो कुछ यम और नियमका स्वरूप बतलाया है उसको अच्छी तरह समझ कर अपनी शक्तिके अनुसार, देशके अनुसार, कालके अनुसार और अपनो आयुके अनुसार गृहस्थोंको व्रत पालन करना चाहिए ।।१७०।। जो पुरुष जिनमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती है ऐसी क्रियाओंका त्याग नहीं कर सकता उसको पांचवें गुणस्थान में आनेकी आवश्यकता नहीं है अर्थात् उसे अणुव्रत धारण नहीं करना चाहिए । उसको चतुर्थ गुणस्थानमें होनेवाली क्रियाएँ ही पूर्ण रीतिसे पालन करनी चाहिए ॥१७१॥ जो पुरुष पाँचवें गुणस्थानमें होनेवाली क्रियाओंका पालन नहीं कर सकता, अर्थात् अणुव्रतोंको धारण नहीं कर सकता, अथवा त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं कर सकता, अथवा जिनमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती हो ऐसी क्रियाओंका त्याग नहीं कर सकता, तथापि वह यदि व्रतोंको धारण करना चाहे और अपनेको व्रती मानना चाहे तो भी वह व्रती नहीं हो सकता किन्तु मोहनीय कर्मके उदय होनेसे उसको व्रताभासी अथवा व्रताभासोंको धारण करनेवाला कहते हैं ॥१७२।। ग्रन्थकार कहते हैं कि व्यर्थके कोलाहल करनेसे कोई लाभ नहीं है। जिन क्रियाओंसे आत्माका कल्याण होता हो ऐसी ही क्रियाएँ श्रावकको करनी चाहिए, क्योंकि बुद्धिमान् पुरुष जितने आरम्भ या कार्य करते हैं उन सबसे अपने फलकी ही सिद्धि करते हैं ॥१७३॥ "अणुव्रती श्रावकोंको जिनमें त्रम जीवोंकी हिंसा होती हो ऐसी समस्त क्रियाओंका त्याग कर देना चाहिये" यह जो कहा गया है वह उपलक्षण है । अतएव त्रस जीवोंकी रक्षा तो करनी ही चाहिये किन्तु पृथ्वीकायिक जलकायिक आदि स्थावरकायिक जीवोंको निःशंक होकर उपमर्दन नहीं करना चाहिये ॥१७४॥ अतएव अहिंसा अणुव्रतको शुद्ध बनाये रखनेके लिये पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक इन पांचों प्रकारके एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंकी रक्षा करने में भी सबसे अधिक प्रयत्न करना चाहिये ॥१७५॥ जिनमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती है ऐसी क्रियाओंको त्याग करनेवाले श्रावकको खेती आदिके समान महा आरम्भोंका त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि महा आरम्भ करना नरकगतिका कारण है तथा निश्चयसे नरकोंके महा दुःख देनेवाला है ।।१७६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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