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________________ लाटीसंहिता यमस्तत्र यथा यावज्जीवनं प्रति पालनम् । देवाघोरोपसर्गेऽपि दुःखे वा मरणावधि ॥१५९ यमोऽपि द्विविधो ज्ञेयः प्रथमः प्रतिमान्वितः । अन्यः सामान्यमानत्वात्स्पष्टं तल्लक्षाणं यथा ॥१६० यावज्जीवं त्रसानां हि हिंसादेरपकर्षणम् । सर्वतस्तक्रियायाश्चत्प्रतिमारूपमुच्यते ॥१६१ अथ सामान्यरूपं तद्यदल्पीकरणं मनाक । यावज्जीवनमप्येतद्देशतो न (तु) सर्वतः ॥१६२ आह कृषीवलः कश्चिद्विशतं न च करोम्यहम् । शतमात्रं करिष्यामि प्रतिमाऽस्य न कापि सा ॥१६३ नियमोऽपि द्विधा ज्ञेयः सावधिर्जीवनावधिः । त्रसहिंसाक्रियायाश्च यथाशक्त्यपकर्षणम् ॥१६४ सावधिः स्वायुषो यावदगिव वतावधिः । उद्ध्वं यथात्मसामथ्यं कुर्याद्वा न यथेच्छया ॥१६५ पुनः कुर्यात्पुनस्त्यक्त्वा पुनः कृत्वा पुनस्त्यजेत् । न त्यजेद्वा न कुर्याद्वा कारं कारं करोति च ॥१६६ अस्ति कश्चिद्विशेषोऽपि द्वयोर्यमनियमयोः । नियमो दृक्प्रतिमायां व्रतस्थाने यमो मतः ॥१६७ तो केवल यमरूपसे और दूसरा केवल नियमरूपसे ॥१५८॥ इन यम नियम दोनोंमेंसे जीवनपर्यन्त पालन करना यम है। यदि देवयोगसे कोई घोर उपसर्ग आ जाय अथवा महादुःख उत्पन्न हो जाय अथवा मरण होने तकका समय आ जाय तो भी उस किये हुए त्यागसे विचलित न होना यम कहलाता है ॥१५९।। वह यम भी दो प्रकार है-एक प्रतिमारूप और दूसरा सामान्यरूप । इन दोनोंका स्पष्ट लक्षण नीचे लिखे अनुसार है ॥१६०॥ जीवन पर्यंत पूर्णरूपसे त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करना तथा जिन जिन क्रियाओंमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती हो ऐसी समस्त क्रियाओंका जीवनपर्यन्ततकके लिए त्याग कर देना प्रतिमारूप यम कहलाता है ॥१६१।। तथा जीवन पर्यन्त त्रस जीवोंकी हिंसाको थोड़ा कम करना और वह भी पूर्णरूपसे नहीं किन्तु एकदेश कम करना सामान्यरूप यम कहलाता है ।।१६२।। जैसे कोई किसान जन्मभरके लिए यम-नियम ले कि में जो इस समय दो सौ बीघा खेती करता हूँ सो अब न करूंगा। अबसे में जन्म भर तक सौ बीघा खेती करूंगा। ऐसे यमरूप त्यागको सामान्य यम कहते हैं। इसमें त्रस जीवोंकी हिंसा कम की गई है, उसका पूर्ण रूपसे त्याग नहीं किया गया है इसलिए वह प्रतिमारूप यम नहीं है किन्तु एकदेश रूपसे कम की गई है इसलिए उसको सामान्य यम कहते हैं ॥१६३।। इस प्रकार यमके दो भेद बतलाए । अब आगे नियमके भी दो भेद बतलाते हैं। नियम भी दो प्रकार है। जिनमें त्रस जोवोंको हिंसा हो ऐसी क्रियाओंका अपनी शक्तिके अनुसार कालकी मर्यादा लेकर त्याग करना पहला नियम है तथा उन्हीं क्रियाओंका अपनी शक्तिके अनुसार जीवन पर्यन्त त्याग करना दूसरा नियम है ।।१६४।। अपनी आयुके पहले पहले तक किसी कालकी मर्यादा लेकर किसी व्रतके धारण करनेका नियम करना वह पहला सावधि (अवधि अर्थात् कालकी मर्यादा सहित) नियम कहलाता है। उस व्रतके धारण करनेकी जितने कालकी मर्यादा ली है उतने काल तक तो वह उसको पालन करता ही है। उसके बाद वह उस व्रतको अपनी इच्छानुसार और अपनी सामर्थ्यके अनुसार पालन करता भी है और नहीं भी करता है ॥१६५॥ कालकी मर्यादा लेकर नियम करनेवाला पुरुष उस मर्यादाके पूर्ण होनेपर फिर उस व्रतको करता भी है, करके छोड़ भी देता है, छोड़ करके भी फिर करने लगता है और फिर छोड़ देता है, अथवा फिर उसे नहीं छोड़ता-बराबर करता ही रहता है, अथवा कालकी मर्यादा होनेपर फिर उसे करता ही नहीं, सर्वथा छोड़ देता है अथवा बार बार करता है और फिर करता है ॥१६६।। इन यम और नियम दोनोंमें विशेषकर यह भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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