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________________ भावकाचार-संग्रह मलं वा बहुनोक्तेन वावदूकतया यलम् । त्रसहिंसाक्रिया त्याज्या हिंसाणुव्रतधारिणा ॥१५१ मनु त्यक्तुमशक्यस्य महारम्भानशेषतः । इच्छतः स्वल्पीकरणं कृष्यादेस्तस्य का गतिः ॥१५२ अस्ति सम्यग्गतिस्तस्य साधु साधीयसी जिनैः । कार्या पुण्यफलाश्लाघ्या क्रियामुत्रेह सौख्यदा ॥१५३ यथाशक्ति महारम्भात्स्वल्पीकरणमुत्तमम । विलम्बो न क्षणं कार्यो नात्र कार्या विचारणा ॥१५४ हेतुरस्त्यत्र पापस्य कर्मणः संवरोंऽशतः । न्यायागतः प्रवाहश्च न केनापि निवार्यते १५५ साधितं फलवन्न्यायात्प्रमाणितं जिनागमात् । युक्तेः स्वानुभवाच्चापि कर्तव्यं प्रकृतं महत् ॥१५६ तत्रागमो यथा सूत्रावाप्तवाक्यं प्रकीर्तितम् । पूर्वापराविरुद्धं यत्प्रत्यक्षाद्यैरवाधितम् ॥१५७ उक्तं चयथार्थदर्शिनः पुंसो यथादृष्टार्थवादिनः । उपदेशः परार्थो यः स इहागम उच्यते ॥३७ आगमः स यथा द्वेधा हिंसादेरपकर्षणम। यमादेकं द्वितीयं त नियमादेव केवलात ॥१५८ आदिमें होनेवाली महारम्भोंकी क्रियाएँ चाहे जितनी कम की जाये तो भी उनमें महारम्भ ही होते रहते हैं। इसका भी कारण यह है कि खेती करनेका महारम्भ महापापका कारण है इसलिए खेती करनेवाला महारम्भी पुरुष कभी अणुव्रती नहीं हो सकता ॥१४९-१५०॥ बहुत कहनसे क्या? अथवा अधिक वाद-विवाद करनेसे या अधिक बोलनेसे क्या ? यह निश्चित सिद्धान्त है कि अहिंसा अणुव्रत धारण करनेवालेको त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवाली समस्त क्रियाओंका त्याग कर देना चाहिए ॥१५१। यहाँपर शंकाकार कहता है कि जो कोई पुरुष खेती आदिके महारम्भोंको पूर्ण रीतिसे त्याग नहीं सकता परन्तु उनको कम करना चाहता है उसके लिए क्या उपाय किया जायगा ॥१५२।। इसका उत्तर यह है कि खेती आदिके महारम्भोंको कम करनेवाले लोगोंके लिए भी भगवान् जिनेन्द्रदेवने बहुत ही अच्छी गति बतलाई है। भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहा है कि जो क्रियाएँ पुण्यरूप फलको उत्पन्न करनेवाली हैं और इसीलिए प्रशंसनीय और इस लोक तथा परलोक दोनों लोकोंमें सुख देनेवाली हैं ऐसी क्रियाएँ गृहस्थोंको सदा करते रहना चाहिए ॥१५३।। अपनी शक्तिके अनुसार खेती आदिके महारम्भोंको कम करना उत्तम कार्य है। ऐसे कार्याक करनेके लिये देर नहीं करनी चाहिए और न ऐसे उत्तम कार्योंके करनेके लिए कुछ विचार करना चाहिये ॥१५४॥ ऐसे उत्तम कार्योंको अत्यन्त शोघ्र और विना किसी सोच विचारके करनेका कारण भी यह है कि खेती आदिके महा आरम्भ जितने कम कर दिये जायेंगे उतने ही पापकर्माके अंशोंका संवर हो जायगा। यह न्यायसे प्राप्त हा प्रवाह सदासे चला आ रहा है वह किसीसे निवारण नहीं हो सकता ॥१५५।। इस प्रकार न्यायसे सिद्ध होता है कि खेती आदि महारम्भोंका कम करना भी सफल वा पुण्यफल को देनेवाला है। यह बात जैनशास्त्रोंसे भी सिद्ध होती है, युक्तिसे भी सिद्ध होती है और अनुभवसे भी सिद्ध होती है अतएव खेती आदिके महारम्भोंको कम करनेरूप जो उत्तम कार्य है वह गृहस्थोंको अवश्य करना चाहिये ॥१५६।। जो सूत्रोंके द्वारा आप्तवाक्योंका कहना है वही आगम कहलाता है। वह आगम पूर्वापर विरोधसे रहित होता है और प्रत्यक्षादिक प्रमाणोंसे अबाधित होता है ॥१५७॥ कहा भी है जो पुरुष विशेष या अरहन्तदेव यथार्थ दर्शी हैं, समस्त स्थूल सूक्ष्म पदार्थोंको प्रत्यक्ष देखते हैं तथा जिस प्रकार देखते हैं उसी प्रकार उनका स्वरूप निरूपण करते हैं ऐसे भगवान् अरहन्तदेवका भव्य जीवोंका कल्याण करनेके लिए दिया हुआ जो उपदेश है उसीको बागम कहते हैं ॥३७॥ उस बागममें हिंसादिक पापोंका जो त्याग बतलाया है वह दो प्रकारसे बतलाया है-एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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