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________________ लाटीसंहिता अपि तत्रात्मनिन्दादिभावस्यावश्यभावतः । प्रमत्तयोगाद्यभावस्य यथास्वं सम्भवादपि ॥ १४३ जलादावपि विख्यातास्त्रसाः सन्त्युपलब्धितः । कृष्यादौ च त्रसाः सन्ति विख्याता क्षितिमण्डले ॥१४४ नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि हिंसाणुव्रतलक्षणे । सतॄणाभ्यवहारित्वं भुञ्जानो द्विरदादिवत् ॥ १४५ वच्म्यहं लक्षणं तस्य सावधानतया शृणु । क्षणं प्रमादमुत्सृज्य गहितावद्यकारणम् ॥१४६ अणुत्वमल्पीकरणं तच्च गृद्धेरिहार्थतः । यथावद्यस्य हिंसादेहृषीक विषयस्य च ॥१४७ कृष्णादयो महारम्भाः क्रूरकर्मार्जनक्षमाः । तत्क्रियानिरतो जीवः कुतो हिसावकाशवान् ॥१४८ न च शक्यं हि कृष्यादिमहारम्भे क्रिया तु या । सत्स्वल्पोकरणं चार्थाद्धसाणुव्रतमिष्यते ॥ १४९ यतः स्वल्पीकृतोऽप्यत्र महारम्भः प्रवर्तते । महावग्रस्य हेतुत्वात्तद्वान्नाणुव्रती भवेत् ॥१५० करने में भी क्या दोष है क्योंकि जो कारण ऊपर बताये हैं वे सब यहाँ भी मिलते हैं । जिस प्रकार स्थावर जीवोंके आश्रय रहनेवाले त्रस जीवोंकी हिंसाको भी वह बचा नहीं सकता उसी प्रकार खेती में होनेवाली त्रस जीवोंकी हिंसाको भी वह बचा नहीं सकता ।।१४१-१४२॥ दूसरी बात यह है कि खेती करनेमें जो त्रस जीवोंकी हिंसा होती है उसके करते समय वह अपनी निन्दा अवश्य करता है अर्थात् उस हिंसाको वह त्याज्य अवश्य मानता है । इसी प्रकार जैसे वहाँपर उसके प्रमादका अभाव है, कषायरूप परिणामोंका अभाव है उसी प्रकार खेती करने में भी कषायरूप परिणामोंका अभाव है। खेती करनेमें जो त्रस जीवोंकी हिंसा होती है उसको वह कषाय-पूर्वक नहीं करता तथा उनकी रक्षा करने में भी वह सावधान रहता है अतएव अणुव्रतीके लिए यदि स्थावर जीवोंके आश्रय रहनेवाले त्रस जीवोंकी हिंसाको निर्दोष कहा जायगा तो खेती करने में होनेवाली त्रस जीवोंकी हिंसाको भी निर्दोष कहना पड़ेगा || १४३ || शंकाकार कह रहा है कि कदाचित् तुम यह कहो कि स्थावर जीवोंके आश्रय त्रसजीव रहते ही नहीं है सो भी ठीक नहीं 1. है क्योंकि जल के आश्रय रहनेवाले त्रस जीव प्रसिद्ध हैं और वे प्रत्यक्ष देखे जाते हैं । सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से स्पष्ट दिखाई देते हैं तथा छोटी-छोटी मछलियाँ तथा और भी अनेक प्रकारके जलचर जीव इन्द्रियोंसे भी दिखाई देते हैं । इसी प्रकार खेती करनेमें भी पृथ्वी मण्डलमें रहनेवाले अनेक प्रकारके सजीव प्रसिद्ध हैं । गिडोरे गिंजाई आदि असंख्यात जीव खेतोंमें उत्पन्न हो जाते हैं इसलिए स्थावर जीवोंके आश्रय त्रस जीवोंका सद्भाव मानना ही पड़ता है तथा खेती करनेमें भी सजीवोंकी हिंसा माननी ही पड़ती है । इस प्रकार पाँच श्लोकोंमें शंकाकारने शंका उपस्थित की है || १४४ ॥ ग्रन्थकार अब उसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि शंकाकारकी यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार घासके साथ चावलोंको खाता हुआ हाथी चावलोंको नहीं समझता, केवल घासको ही समझता है उसी प्रकार शंका करनेवाला अहिंसा अणुव्रतके लक्षणको नहीं समझता ।।१४५।। हे शंकाकार, तू अत्यन्त निन्दनीय और पापका कारण ऐसे प्रमादको छोड़कर तथा सावधान होकर क्षणभर सुन । मैं अब अणुव्रतका लक्षण कहता हूँ || १४६ || अणु शब्दका अर्थ घटाना है तथा यहाँपर प्रकरणके वशसे गृद्धता वा लालसाका घटाना लेना चाहिए तथा वह लालसा भी पापकर्मों की लालसा, हिंसाकी लालसा और इन्द्रियोंके विषयोंकी लालसा घटानी वा कम करनी चाहिए || १४७|| खेती आदिक व्यापार महा आरम्भ उत्पन्न करनेवाले हैं तथा क्रूर कार्योंसे उपार्जन किये जाते हैं ? उन क्रूर कार्योंमें लगा हुआ जीव भला अहिंसा अणुव्रतको किस प्रकार पाल सकता है ? ॥१४८॥ यहाँ पर यह शंका भी नहीं करनी चाहिए कि खेती आदि महारम्भोंमें होनेवाली क्रियाओंका कम करना भी अहिंसा अणुव्रत कहलावेगा ? क्योंकि खेती Jain Education International ९५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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