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________________ १४ श्रावकोपार-संबह बत्र सूत्रे चकारस्य ग्रहणं विद्यते स्फुटम् । तस्यार्यष्टीकाकारेण टोकायां प्रकटीकृतः ॥१३५ टीका व्याख्या यथा कश्चिज्जीवो यः सम्यग्दृष्टिमान् । उपविष्टं प्रवचनं जिनोक्तं श्रद्दधाति सः १३६ चकारग्रहणादेव न कुर्यात्त्रसहिंसनम् । विना कार्य कृपार्द्रत्वात्प्रशमादिगुणान्वितः ॥१३७ एवमित्यत्र विख्यातं कथितं च जिनागमे । स एवार्थो यद्यत्रापि वतित्वं हि कुतोऽर्थतः ॥१३८ तत्पश्चमगुणस्थाने दिग्मात्रं व्रतमिच्छता । त्रसकायबधार्थ या क्रिया त्याज्याऽखिलाऽपि च ॥१३९ ननु जलानलोय॑न्नसद्वनस्पतिकेषु च । प्रवृत्तौ तच्छ्रिताङ्गानां त्रसानां तत्र का कथा ॥१४० नेष दोषोऽल्पदोषत्वाचद्वा शक्यविवेचनात् । निष्प्रमावतया तत्र रक्षणे यत्नतत्परात् ॥१४१ एवं चेहि कृष्यावौ को दोषस्तुल्यकारणात् । अशक्यपरिहारस्य तद्वत्तत्रापि सम्भवात् ॥१४२ इस सूत्रमें एक चकार है । सूत्रकारने जिस प्रयोजनके लिए चकारका ग्रहण किया है उसका स्पष्ट अर्थ टीकामें लिखा है ॥१३५।। टीकाकारने इस सूत्रकी टीका इस प्रकार लिखी है कि जो कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव है वह भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए वचनोंका श्रद्धान करता है। इस सूत्रमें जो चकार है उसका अभिप्राय यह है कि उसका हृदय करुणासे अत्यन्त भींगा रहता है क्योंकि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य ये चार गुण उसके स्पष्ट प्रगट हो जाते हैं । अतएव वह सम्यग्दृष्टि पुरुष विना प्रयोजनके त्रस जीवोंकी हिंसा कभी नहीं करता है ॥१३६-१३७॥ चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रत सम्यग्दृष्टिका यह स्वरूप सर्वत्र प्रसिद्ध है तथा जैनशास्त्रोंमें सर्वत्र कहा है। यदि यही अर्थ पंचम गुणस्थानवर्ती अहिंसा अणुव्रतके स्वरूपमें लिया जायगा तो फिर उसको व्रती किस कारणसे कहा जायगा ॥१३८। इसलिए जो श्रावक पांचवें गुणस्थानको धारण कर थोड़ेसे भी व्रतोंको धारण करना चाहता है उसे ऐसी समस्त क्रियाओंका त्याग कर देना चाहिये जिनमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती हो ॥१३९॥ यहाँपर शंका करनेवाला फिर शंका करता है कि अहिंसा अणुव्रतको धारण करनेवाला त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवाली क्रियाओंका त्यागी होता है । स्थावर जीवोंकी हिंसा करनेवाली क्रियाओंका त्यागी नहीं होता अतएव जब वह पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंकी हिंसा करनेवाली क्रियाओंमें प्रवृत्त होता है उस समय उन स्थावर जीवोंके आश्रय रहनेवाले त्रस जीवोंकी क्या अवस्था होती होगी ॥१४०॥ कदाचित् यह कहो कि अणुव्रतीके लिए इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि इसमें बहुत थोड़ा दोष लगता है, वह त्रस जीवोंकी हिंसा करनेके लिए तैयार नहीं हुआ है केवल स्थावर जीवोंके आश्रय होनेसे उनका घात हो जाता है। उसके परिणाम उनके हिंसा करनेके लिए नहीं होते इसलिए इसमें अधिक दोष नहीं है। दूसरी बात यह है कि जिन स जीवोंको वह बचा सकता है उनको बचा देता है, जिनके बचाने में वह असमर्थ है, किसी तरह भी नहीं बचा सकता उन्हींका पात हो जाता है इसलिए भी इसमें दोष नहीं है। तीसरी बात यह है कि वह श्रावक उन जीवोंके मारनेके प्रति कषाय नहीं कर रहा है कषायपूर्वक उनका घात नहीं करता है अतएव प्रमादरहित होनेके कारण भी उसमें दोष नहीं है और चौथी बात यह है कि उनकी रक्षा करनेके लिए वह अच्छी तरह यत्न करता है। उनकी हिंसा होनेमें वह असावधान नहीं है इसलिए भी अणुव्रतीके लिये कोई दोष नहीं आता। शंकाकार कहता है कि इस प्रकार अणुवतीको तुम निर्दोष सिड करना चाहो सो भी ठीक नहीं है क्योंकि वह इस प्रकार निर्दोष सिद्ध हो नहीं सकता। कदाचित ऊपर लिखे कारणोंसे उसे निर्दोष सिद्ध करना चाहो तो फिर अणुव्रतीके लिये खेती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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