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________________ लाटीसंहिता क्रियायां यत्र विख्यातस्त्रकायबधो महान् । तां तां क्रियामवश्यं स समिपि परित्यजेत् ॥१२८ अत्राप्याऽऽशङ्कते कश्चिदात्मप्रज्ञापराधतः । कुद्धिसां स्वकार्याय न कार्या स्थावरक्षतिः ॥१२९ अयं तेषां विकल्पो यः स्याद्वा कपोलकल्पनात् । अर्थाभासस्य भ्रान्तेर्वा नैवं सूत्रार्थदर्शनात् ॥१३० तद्यथा सिद्धसूत्रार्थे दर्शितं पूर्वसूरिभिः । तत्रार्थोऽयं विना कार्य न कार्या स्थावरक्षतिः ॥१३१ एतत्सूत्र-विशेषार्थेऽनवदत्तावधानकैः । नूनं तैः स्खलितं मोहात्सर्वसामान्यसङ्ग्रहात् ॥१३२ किञ्च कार्य विना हिंसां न कुर्यादिति धीमता । दृष्टेस्तुर्यगुणस्थाने कृतार्थत्वादहगात्मनः ॥१३३ यदुक्तं गोम्मटसारे सिद्धान्ते सिद्धसाधने । तत्सूत्रं च यथाम्नायात्प्रतीत्य वच्मि साम्प्रतम् ॥१३४ उक्तं चसम्माइट्ठी जीवो उवइटुं पवयणं च सद्दहदि । सद्दहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥३६ तरह सुन लेना चाहिए, क्योंकि ऐसी क्रियाओंसे आत्माका कभी कल्याण नहीं होता है। ऐसी त्रस जीवोंकी हिंसा करनेवालो क्रियाओंसे यह आत्मा नरकादिक दुर्गतियोंमें ही प्राप्त होता है ॥१२७॥ जिस क्रियाके करने में त्रस जीवोंकी महा हिंसा होती हो ऐसी-ऐसी समस्त क्रियाओंका त्याग अवश्य कर देना चाहिए ॥१२८|| यहाँपर कोई पुरुष अपनी बुद्धिके दोषसे कुतर्क करता हुवा शंका करता है कि अपने कार्यके लिए तो त्रस जीवोंकी हिंसा भी कर लेनी चाहिए परन्तु विना प्रयोजन स्थावर जीवोंका विघात भी नहीं करना चाहिए, परन्तु यह उसका विकल्प कपोलकल्पित है। या तो उसे अर्थका यथार्थ परिज्ञान नहीं हुआ है अथवा भ्रमरूप बुद्धि होनेसे ऐसी कपोलकल्पना करता है, क्योंकि उसका किया हुआ यह अर्थ सूत्र या शास्त्रोंके अनुसार नहीं है। सूत्र या शास्त्रोंके विरुद्ध है ॥१२९-१३०॥ शंका करनेवालेने जो शंका करते हुए अहिंसा अणुव्रतका अर्थ किया है वह विरुद्ध क्यों है इसी बातको आगे दिखलाते हैं। पहलेके आचार्योंने अनादिसिद्ध शास्त्रोंमें जो अर्थ बतलाया है वह यह है कि विना प्रयोजनके स्थावर जीवोंकी हिंसा भी नहीं करनी चाहिए। फिर भला त्रस जोवोंकी हिंसा करनेकी तो बात ही क्या है। त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग तो सर्वथा कर देना चाहिए। किसी विशेष प्रयोजनके वश होकर भी त्रस जीवोंकी हिसा कभी नहीं करनी चाहिए ॥१३१।। जो लोग इस सिद्धान्तके विशेष अर्थको नहीं जानते हैं ऐसे लोग ही अपने मोहनीय कर्मके उदयसे स्खलित हो जाते हैं अर्थात् मोहनीय कर्मके उदयसे हिसाको ही अहिंसा वा अहिंसा अणुव्रत मान लेते हैं। ऐसे लोग समस्त कथनको सामान्यरूपसे समझ लेते हैं और सबको सामान्य समझकर एक साथ संग्रह कर लेते हैं ॥१३२।। दूसरी समझने योग्य विशेष बात यह है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष कृतार्थ होता है। यह अपने आत्माके स्वरूपको अच्छी तरह जानता है अतएव वह चौथे गणस्थानमें भी विना प्रयोजनके हिंसा नहीं करता। इस बातको सब बद्धिमान अच्छी तरह जानते हैं ॥१३३॥ यही बात जीवकी सिद्ध अवस्थाके उपायको बतलानेवाले गोमट्टसारनामके सिद्धान्तशास्त्रमें बतलाई है। आचार्योंकी परम्परापूर्वक चला आया जो वह सूत्र है उसको मैं अब विश्वासके लिए कहता हूँ ॥१३४।। गोमट्टसारमें लिखा है-सम्यग्दृष्टि जोव भगवान् सर्वज्ञदेवके कहे हुए शास्त्रोंका श्रद्धान करता है तथा जिस किसी पदार्थका स्वरूप वह नहीं जानता है और उसका स्वरूप गुरु बतला देवें तो उन गुरुका बतलाया हुआ उस पदार्थका स्वरूप चाहे यथार्थ न हो तो भी वह उन यथार्थ गुरुके कहे वचनोंका श्रद्धान कर लेता है ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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