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________________ श्रावकाचार-संग्रह ननु हिंसा निषिद्धा स्याद् यदुक्तं तद्धि सम्मतः । तस्य देशतो विरतिस्तत्कथं तद्वदाद्य नः ॥१२० उच्यते शृणु भो प्राज्ञ तच्छोतुंकाम फामन । देशतो विरतेलक्ष्म हिंसाया वच्मि साम्प्रतम् ॥१२१ अत्रापि देशशब्देन विशिष्टोंऽशो विवक्षितः । न यथाकाममात्मोत्थं कश्चिदन्यतमोऽशकः ॥१२२ देशशब्दोऽत्र स्थूलार्थे तथा भावाद्विवक्षितः । कारणात्स्थूलहिंसादेस्त्यागस्यैवात्र दर्शनात् ॥१२३ स्थूलत्वमार्दवं स्थूलत्रसरक्षादिगोचरम् । अतिचाराविनाभूतं सातिचारं च सास्रवम् ॥१२४ तद्यथा यो निवृत्तः स्याद्यावत्रसवधादिह । न निवृत्तस्तथा पञ्चस्थावरहिंसया गृही ॥१२५ विरताविरताख्यः स स्यावेकस्मिन्ननेहसि । लक्षणात्त्रसहिंसायास्त्यागेऽणुव्रतधारकः ॥१२६ उक्तं च-- जो तसवहाउ विरओ अविरओ तह थावर-वहाओ। एकसमयम्हि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥३५ अत्र तात्पर्यमेवेतत्सर्वारम्भेण श्रूयताम् । त्रसकायबधाय स्याक्रिया त्याज्या हितावती ॥१२७ लेनेपर फामन फिर पूछने लगा कि आपने जो हिंसाका त्याग करना बतलाया है और उसके त्याग करनेकी जो विधि बतलाई सो तो सब ठीक है परन्तु उसका एकदेश त्याग कैसे किया जाता है । एकदेशका क्या अर्थ है उसे ही आज बतलाइये ॥१२०।। हे विद्वान् फामन ! तूं हिंसाके एकदेश त्यागका लक्षण सुनना चाहता है सो सुन । मैं अब उसी हिंसाके एकदेश त्यागका लक्षण कहता हूँ ॥१२१॥ यहाँपर देश शब्दका अर्थ विशिष्ट अंश लिया गया है। अपनी इच्छानुसार त्याग कर देना अथवा किसी एक अंशका त्याग कर देना एकदेश शब्दका अर्थ नहीं है ॥१२२।। यहाँपर एकदेश शब्दका अर्थ स्थूल लेना चाहिए तथा भावपूर्वक लेना चाहिए अर्थात् कारण पूर्वक स्थूल हिंसादिकका त्याग करना ही एकदेश त्यागका अर्थ है। यही अर्थ शास्त्रोंमें कहा गया है ।।१२३।। स्थूल शब्दका भी अर्थ कोमल परिणाम या करुणा है। करुणापूर्वक स्थूल अस जीवोंकी रक्षा करना ही अहिंसाणुव्रत है। यह अणुव्रत अतिचारोंके साथ-साथ होता है अर्थात् यह अतिचार सहित होता है और आस्रव सहित होता है ॥१२४|| आगे इसीका खुलासा कहते हैं। इस अहिंसा अणुव्रतको धारण करनेवाला गृहस्थ त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग कर देता है परन्तु पांचों स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्याग नहीं करता इसलिए अणुव्रतोंको धारण करनेवाला गृहस्थ एक ही पापका त्यागी भी होता है और त्यागी नहीं भी होता, अतएव अणुव्रतीको विरताविरत कहते हैं तथा अहिंसाणुव्रतका लक्षण त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करना बतलाया है। इस प्रकार जो त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागो और स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी नहीं है उसको अणुव्रती कहते हैं ॥१२५-१२६॥ ____कहा भी है जो त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागी है परन्तु स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी नहीं है। इस प्रकार केवल जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको माननेवाला सम्यग्दृष्टि श्रावक एक ही समयमें विरताविरत कहलाता है। अर्थात् वह त्रस जीवोंकी हिंसाका त्यागी है इसलिए विरत कहलाता है और स्थावर जीवोंकी हिंसाका त्यागी नहीं है इसलिए अविरत कहलाता है, इस प्रकार एक ही समयमें वह विरत और अविरत अर्थात् विरताविरत कहलाता है ॥३५।। इस सबके कहने का अभिप्राय यह है कि जिस आरम्भसे त्रस जीवोंकी हिंसा होती हो ऐसी बितनी भी क्रियाएं हैं उनका सब प्रकारसे त्याग कर देना चाहिए। इस बातको खूब अच्छो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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