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________________ काटीतहिता मरदु व जीवदु जीवो अयवाचारस्स लिच्छिया हिता। पयदस्स गत्वि वंषो हिंसामिण विरवस्स ॥३३ ननु प्रमत्तयोगो यस्त्याज्यो हेयः स एव च । प्राणिपीडा भवेन्मा वा कामचारोऽस्तु देहिमाम् ॥११५ मैवं स्यात्कामचारोऽस्मिन्नवश्यं प्राणिपोडनात् । विना प्रमत्तयोगा? कामचारो न दृश्यते ॥११॥ उक्तंचतथापि न निरगंलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां । तवायतनमेव सा किल निरगला व्यावृतिः। अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुद्धचते किमु करोति जानाति ॥३४ सिद्धमेतावता नूनं त्याज्या हिंसादिका क्रिया। त्यक्तायां प्रमत्तयोगस्तत्रावश्यं निवर्तते ॥११७ अत्यक्तायां तु हिंसादिक्रियायां द्रव्यरूपतः । भावः प्रमत्तयोगोऽपि न कदाचिनिवर्तते ॥११८ ततः साधीयसी मैत्री श्रेयसे द्रव्यभावयोः । न घेयान् कदाचिद्वै विरोधो वा मियोऽनयोः ॥११९ वहाँपर न तो कर्मोंका बन्ध होता है और न कोके बन्ध होनेका कोई कारण ही है ॥१४॥ कहा भी है-जीव चाहे मर जाय अथवा जीवित बना रहे परन्तु जो जीवोंकी रक्षा करने में प्रयत्न नहीं करता, जीवोंकी रक्षामें सावधान नहीं रहता उसके हिंसाका पाप अवश्य लगता है तथा जो समितियोंका पालन करता है, जीवोंकी रक्षा करनेमें प्रयत्न करता है, सावधानी रखता है उसके जीवोंकी हिंसा होनेपर भी कोका बन्ध नहीं होता ॥३३॥ यहाँपर कोई शंका करता है कि जब प्रमादके सम्बन्धसे ही हिंसाका पाप लगता है, जीवोंके प्राणोंका वियोग हो या न हो परन्तु प्रमाद होनेपर हिंसाका पाप लग ही जाता है तो फिर प्रमादका ही त्याग करना चाहिए क्योंकि प्रमाद हो त्याग करने योग्य है। प्रमादके त्याग कर देनेपर फिर प्राणियोंको पीड़ा हो वा न हो यह प्राणियोंकी इच्छापर निर्भर रहना चाहिए ॥११५॥ परन्तु शंका ठीक नहीं है क्योंकि प्रमादका त्याग कर देनेपर जीवोंकी हिंसा करना हिंसा करनेवालेकी इच्छा पर निर्भर रखना सर्वथा अयुक्त है अर्थात् यह बात बन नहीं सकती। जिसने प्रमादका त्याग कर दिया है वह हिंसा भी करता रहे यह बात सर्वथा असम्भव है क्योंकि हिंसा करनेसे प्राणोंकी पीड़ा अवश्य होती है तथा विना प्रमादके हिंसा करनेकी इच्छा हो उत्पन्न नहीं हो सकती। भावार्थ-विना प्रमादके न तो हिंसा करनेके परिणाम होते हैं और न हिंसा हो सकती है ।।११६॥ कहा भी है-ज्ञानियोंको निरर्गल प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए क्योंकि निरर्गल व्यापार करना प्रमादका घर है। जो कर्म विना इच्छाके किया जाता है वह ज्ञानियोंके लिए कर्मबन्धका कारण नहीं होता । इसलिए करता और जानता दोनों ही परस्पर विरुद्ध नहीं होते ॥३४॥ इससे सिद्ध होता है कि हिंसादिक क्रियाओंका त्याग अवश्य कर देना चाहिए। हिंसादिक क्रियाओंका त्याग कर देनेसे प्रमादरूप योगोंका त्याग अपने आप हो जाता है ।।११७।। यदि द्रव्यरूपसे हिंसादिक क्रियाओंका त्याग नहीं किया जायगा तो प्रमत्तयोगरूप जो परिणाम हैं उनका त्याग भी कभी नहीं हो सकेगा ॥११८। इसलिए आत्माका कल्याण करनेके लिए द्रव्य और भावकी मैत्री होना ही अच्छा है अर्थात् द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनोंका साथ-साथ त्याग कर देना अच्छा है। इन दोनोंका विरोध होना कभी भी कल्याणकारी नहीं हो सकता ॥११९॥ इतना सब सुन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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