SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावकाचार-संग्रह मैवं प्राणान्तरप्राप्ती पूर्वप्राणप्रपीडनात् । प्राणभृद्दुःखमाप्नोति निर्वाच्यं मारणान्तिकम् ॥१०६ कर्मासातं हि बध्नाति प्राणिनां प्राणपीडनात् । येन तेन न कर्तव्या प्राणिपीडा कदाचन ॥ १०७ ततो न्यायागतं चेतद्यद्यद्वाधाकरं चितः । कायेन मनसा वाचा तत्तत्सर्वं परित्यजेत् ॥१०८ तस्मात्त्वं मा वदासत्यं चौयं मा चर पापकृत् । मा कुरु मैथुनं काञ्चिन्मूर्च्छा वत्स परित्यज ॥ १०९ यतः क्रियाभिरेताभिः प्राणिपीडा भवेद् ध्रुवम् । प्राणिनां पीडयाऽवश्यं बन्धः स्यात्पापकर्मणः ॥ ११० तदेकाक्षादिपञ्चक्षपर्यन्ते दुःखभीरुणा । दातव्यं निर्भयं दानं मूलं व्रततरोरिव ॥ १११ नन्वेवमीर्यासमितौ सावधानमुनावपि । अतिव्याप्तिर्भवेत्कालप्रेरितस्य मृतौ चितः ॥११२ मैवं प्रमत्तयोगत्वाद्धेतोरध्यक्षजाग्रतः । तस्याभावान्मुनौ तत्र नातिव्याप्तिर्भविष्यति ॥ ११३ एवं यत्रापि चान्यत्र मुनौ वा गृहमेधिनि । नैव प्रमत्तयोगोऽस्ति न बन्धो बन्धहेतुकः ॥११४ है और प्राणोंका वियोग होनेपर जब यह प्राणी अन्य प्राणोंको धारण कर ही लेता है तब फिर प्राणों का वियोग करनेमें कोई पाप नहीं होता || १०५ || परन्तु यह शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि जब इस जीवके प्राणोंका वियोग होता है तब उन प्राणोंको बहुत ही पीड़ा होती है तथा प्राणोंको पीड़ा होनेसे उस जीवको मरणसे उत्पन्न होनेवाला एक प्रकारका ऐसा महा दुःख होता है जो वचनोंसे कहा भी नहीं जा सकता ॥ १०६ ॥ इसीके साथ दूसरी बात यह है कि प्राणियों पीड़ा करनेसे यह जीव बहुतसे असातावेदनीयकर्मका बन्ध करता है, इसलिए श्रावकोंको या गृहस्थोंको प्राणियोंकी पीड़ा कभी नहीं करनी चाहिए ॥१०७॥ इस प्रकार यह बात न्यायपूर्वक सिद्ध हो जाती है कि जो-जो कार्य इस जीवको दुःख देनेवाले हैं, जिन कार्योंसे अन्य जीवोंको किसी भी प्रकार की बाधा वा दुःख पहुँचता हो, उन सब कार्योंका मनसे, वचनसे और कायसे त्याग कर देना चाहिए || १०८ || अतएव हे वत्स ! फामन ! तू कभी झूठ मत बोल, अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करनेवाली चोरी कभी मत कर, कुशील सेवन कभी मत कर और किसी भी प्रकारको मूर्च्छा वा परिग्रह रखने की लालसा मत कर ॥ १०९ ॥ | क्योंकि झूठ बोलनेसे, चोरी करनेसे, कुशील सेवन करने से और परिग्रहकी अधिक लालसा रखनेसे प्राणियोंको पीड़ा अवश्य होती है, तथा प्राणियोंको पीड़ा होनेसे पाप कर्मोका बन्ध अवश्य होता है ।। ११० ।। इसलिए जो जीव उन पापकर्मो के उदयसे होनेवाले महादुःखों से डरना चाहते हैं, बचना चाहते हैं उन्हें एकेद्रियसे लेकर पंचेन्द्रियपर्यंत समस्त जीवों को अभयदान देना चाहिए अर्थात् समस्त जीवोंकी रक्षा करनी चाहिए। यह समस्त जीवोंकी रक्षा करना व्रतरूपी वृक्षकी जड़ है ॥ १११ ॥ | यहाँ पर कदाचित् कोई यह शंका करे कि जो मुनि चलते समय ईर्यासमिति से सावधान रहते हैं अर्थात् ईर्यासमितिको पूर्णरीति से पालन करते हुए चलते हैं उनके पाँवसे भी कालके द्वारा प्रेरित हुए प्राणीकी मृत्यु हो सकती है इसलिए अहिंसा के इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष आता है । क्योंकि जो जीव मारते हैं उनसे भी हिंसा होती है और जो जीवोंको सवर्था बचानेका प्रयत्न करते हैं जो जीवोंकी रक्षाके लिए ही ईर्यासमितिसे चलते हैं उनसे भी हिंसा होती है इसलिए अहिंसाका यह लक्षण ठीक नहीं है | ११२|| परन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि जहाँपर प्रमाद वा कषायके सम्बन्धसे प्रत्यक्ष जीवकी हिंसा होती है वहीं पर हिंसा कहलाती है । मुनिराज के कषायका सम्बन्ध लेशमात्र भी नहीं है । उनके प्रमादका सर्वथा अभाव है अतएव प्राणोंका वियोग होनेपर भी उनको हिंसाका दोष लेशमात्र भी नहीं लग सकता ॥११३॥ चाहे मुनि हो और चाहे गृहस्थ हो यह नियम सब जगह समझ लेना चाहिए कि जहाँपर प्रमाद नहीं है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy