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लाटीसंहिता
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फलमेतावदुक्तस्य तद्वोघस्याथवार्थतः । यत्नस्तद्रक्षणे कार्यः श्रावकैर्दुःखभीरुभिः ॥ ९५ उक्तमेकाक्षजीवानां संक्षेपात्लक्षणं यथा । साम्प्रतं द्वीन्द्रियादीनां त्रसानां वच्मि लक्षणम् ॥९६ तल्लक्षणं यथा सूत्रे त्रसाः स्युद्वन्द्रियादयः । पर्याप्ता पर्याप्तकाश्च प्रत्येकं ते द्विधा मताः ॥९७ कृमयो द्वीन्द्रियाः प्रोक्तास्त्रीन्द्रियाश्च पिपीलिकाः । प्रसिद्धसंज्ञकाश्चैते भ्रमराश्चतुरिन्द्रियाः ॥९८ पञ्चेन्द्रिया द्विधा ज्ञेयाः संज्ञिनोऽसंज्ञिनस्तथा । संज्ञिनस्तत्र पञ्चाक्षाः देवनारकमानुषाः ॥९९ तिर्यञ्चस्तत्र पञ्चाक्षाः संज्ञिनोऽसंज्ञिनस्तथा । प्रत्येकं ते द्विधा ज्ञेया सम्मूच्छिमारच गर्भजाः ॥ १०० लब्ध्यपर्याप्त कास्तत्र तिर्यञ्चो मनुजाश्च ये । असंज्ञिनो भवन्त्येव सम्मूच्छिमा न गर्भजाः ॥ १०१ इति संक्षेपतोऽप्यत्र जीवस्थानान्यचोकथत् । तत्स्वरूपं परिज्ञाय कर्तव्या करुणा जनैः ॥१०२ व्यपरोपणं प्राणानां जीवाद्विश्लेषकारणम् । नाशकारण सामग्री- सांनिध्यं वा बहिष्कृतम् ॥१०३ अर्थात्तज्जीवद्रव्यस्य नाशो नैवात्र दृश्यते । किन्तु जीवस्य प्राणेभ्यो वियोगो व्यपरोपणम् ॥१०४ ननु प्राणवियोगोऽपि स्यादनित्यः प्रमाणसात् । यतः प्राणान्तरान् प्राणी लभते नात्र संशयः ॥१०५
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इस सब कथन के कहनेका जाननेका और उसके अर्थको समझनेका यही फल है कि जो श्रावक संसारपरिभ्रमणके दुःखोंसे डरते हैं उनको इन समस्त जीवों की रक्षा करनेका प्रयत्न करना चाहिये ||१५|| इस प्रकार संक्षेपसे एकेन्द्रिय जीवोंका लक्षण बतलाया । अब आगे दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय आदि सजीवोंका लक्षण कहते हैं ||१६|| शास्त्रोंमें सजीवोंका लक्षण 'द्वीद्रियादयस्त्रसाः ' अर्थात् - 'दो इन्द्रियको आदि लेकर त्रस हैं' ऐसा कहा है। उन सब सजीवोंमेंसे प्रत्येकके दो दो भेद हैं- एक पर्याप्तक और दूसरा अपर्याप्तक ||९७|| लट, गेंडुए आदि जीव दोइन्द्रिय कहलाते हैं, चींटी, चींटा, खटमल आदि तेइन्द्रिय जीव कहलाते हैं तथा भौंरा, मक्खी ततैया, बरं, लैप वा दीपकपर आनेवाले छोटे छोटे उड़नेवाले जानवर सब चौइन्द्रिय कहलाते हैं, ये सब जीव संसार में प्रसिद्ध हैं ||९८ || पंचेन्द्रिय जीवोंके दो भेद हैं- एक सैनी और दूसरे असेनी । उनमेंसे देव, नारकी और मनुष्य सब सैनी पंचेन्द्रिय कहलाते हैं ||१९|| संसारमें जितने पंचेन्द्रिय तियंच हैं वे दो प्रकार हैं- एक सैनी और दूसरे असेनी । वे दोनों ही प्रकारके तिर्यंच दो दो प्रकारके हैं एक गर्भसे उत्पन्न होनेवाले गर्भज और दूसरे सम्मूर्च्छन ॥ १०० ॥ इनमें जो लब्ध्यपर्याप्तक तिथंच हैं 'सब असैनी होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य हैं वे सब सम्मूर्च्छन होते हैं तथा लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच भी सम्मूर्च्छन ही होते हैं । लब्ध्यपर्याप्तक चाहे तिर्यंच हों चाहे मनुष्य हों वे सब सम्मूच्र्छन ही होते हैं गर्भज नहीं होते । स्त्रियोंके कुच या काँख आदि स्थानों में सम्मूर्च्छन मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं ॥ १०१ ॥ । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेपसे जीवोंके स्थान बतलाए । इन सबका स्वरूप समझकर श्रावकों को इन समस्त जीवोंपर करुणा वा दया करनी चाहिये ॥१०२॥ अब आगे व्यपरोपण शब्दका अर्थ बतलाते हैं । जीवसे उसके प्राणोंको अलग करना - वियोग करना व्यपरोपण कहलाता है अथवा प्राणोंके नाश करनेकी सामग्रीका इकट्ठा करना अथवा प्राणोंको जीवसे सर्वथा अलग कर देना व्यपरोपण है || १०३ ॥ | इसका भी अभिप्राय यह है कि इस संसारमें जीवद्रव्यका तो नाश कभी होता ही नहीं है किन्तु जीवद्रव्यसे उसके वर्तमान आयु, श्वासोच्छ्वास आदि प्राणोंका वियोग हो जाता है । इसीको प्राणोंका व्यपरोपण वा हिंसा कहते हैं ॥१०४॥ | कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि प्राणोंका वियोग होना भी अनित्य है, होता ही रहता है । क्योंकि बिना मारे भी जीव मरते हो हैं तथा वे जीव फिर अन्य प्राणोंको धारण करते हो हैं इसमें कोई सन्देह नहीं है यह बात प्रमाणसे सिद्ध है। अतएव जब प्राणोंका वियोग होना अनित्य १२
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