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________________ ८६ বাহু सूक्मकर्मोदयाजाताः सूक्ष्मा जीवा इतीरिताः । सन्त्यघातिशरीरास्ते वज्रानलजलादिभिः ॥७३ उक्तंचमहि जेसि पडिखलणं पुढवीताराहि अग्गिवाराहि । ते हंति सुहमकाया इयरे पुण थूलकाया य ।।२७ स्थूलकर्मोदयाज्जाताः स्थूला जीवाः स्वलक्षणात् । सन्ति घातिशरीरास्ते वज्रानलजलादिभिः ॥७४ उक्तं च ___घाक्सिरीरा थूला अघादिसरीरा हवे सुहमा ॥२८ किन स्थूलशरीरास्ते क्वचिच्च क्वचिदाश्रिताः । सूक्ष्मकायास्तु सर्वत्र प्रैलोक्ये घृतवद्घटे ॥७५ आधारधरा पढमा सव्वत्थ णिरन्तरा सुहमा ॥२९ प्रत्येकं ते द्विषा प्रोक्ताः केवलज्ञानलोचनैः । पर्याप्तकाश्वापर्याप्तास्तेषां लक्षणमुच्यते ॥७६ पर्याप्तको यथा कश्चिदेवादगत्यन्तराच्च्युतः । अन्यतमा गति प्राप्य गृहीतुं वपुरुत्सुकः ॥७७ चाहिए ॥७२॥ इनमेंसे जो जीव सूक्ष्मनामकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं उनको सूक्ष्म जीव कहते हैं। इन सूक्ष्म जीवोंका वज, अग्नि, जल आदि किसी भी पदार्थसे कभी भी घात नहीं होता है ॥७३॥ कहा भी है-पृथ्वी तारे अग्नि जल आदि किसी भी पदार्थसे जिनका परिस्खलन नहीं होता अर्थात्में जो न तो पृथ्वीसे रुकते हैं, न तारोंसे टक्कर खाते हैं, न अग्निमें जलते हैं और न जलसे बहते हैं उनको सूक्ष्म जीव कहते हैं तथा जो जीव पृथ्वीसे रुक जाते हैं, तारोंसे टकराते हैं, अग्निसे जल जाते हैं और पानीमें बह जाते हैं उनको स्थूलकाय या स्थूल शरीरको धारण करनेवाले जीव कहते हैं ।।२७॥ जो जीव स्थूलनामके नामकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं उनको स्थूल जीव कहते हैं क्योंकि स्थूलका जो लक्षण है वह उनमें अच्छी तरह संघटित होता है तथा वन अग्नि जल आदिसे उन जीवोंका शरीर पाता जाता है ॥७॥ कहा भी है-स्थूल जीव उनको कहते हैं जिनका शरीर धाता जाय और सूक्ष्म जीव उनको कहते हैं जिनका शरीर किसीसे भी न धाता जाय ॥२८॥ इस प्रकार स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके जीवोंका लक्षण बतलाया है। इसमें भी इतना मेद है कि जो स्थूल शरीरको धारण करनेवाले जीव हैं वे सब जगह नहीं हैं किन्तु कहीं-कहींपर किसी न किसीके आश्रय रहते हैं तथा जो सूक्ष्म जीव हैं वे इन तीनों लोकोंमें सब जगह इस प्रकार भरे हुए हैं जैसे घड़ेमें घी भरा रहता है ॥७॥ कहा भी है-स्थूल जीव किसीके आधारपर रहते हैं और सूक्ष्म जीव इन तीनों लोकोंमें सब जगह और सदैव भरे रहते हैं ॥२९॥ अब आगे इनके पर्याप्तक तथा अपर्याप्तक भेद बतलाते हैं । केवलज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले भगवान् अरहन्तदेवने उन स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके जीवोंमेंसे प्रत्येक जीवके दो दो भेद बतलाये हैं-एक पर्याप्तक और दूसरे अपर्याप्तक । अब उनका लक्षण कहते हैं ॥७६।। जो जीव देवयोगसे वा आयु पूर्ण हो जानेसे किसी भी एक गतिको छोड़ कर दूसरी किसी भी गतिमें बाकर उत्पन्न होता है तब वह जीव वहांपर शरीर धारण करनेका प्रयत्न करता है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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