SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाटीसंहिता अनौकाक्षादिजीवाः स्युः प्राणशब्दोपलक्षाणात् । प्राणादिमत्त्वं जीवस्य नेतरस्य कदाचन ॥६४ प्रसङ्गादत्र दिग्मानं वाच्यं प्राणिनि कायकम् । तत्स्वरूपं परिज्ञाय तद्रक्षां कर्तुमर्हति ॥६५ सन्ति जीवसमासास्ते संक्षेपाच्च चतुर्दश । व्यासादसंख्यभेदाश्च सन्त्यनन्ताश्च भावतः ॥६६ तत्र जीवो महीकायः सूक्ष्मः स्थूलश्च स द्विधा । पर्याप्तापर्याप्तकाभ्यां भेदाभ्यां स द्विधाऽथवा ॥६७ प्रत्येकं तस्य भेदाः स्युश्चत्वारोऽपि च तद्यथा। शुद्धाभूभूमिजीवश्च भूकायो भूमिकायिकः ॥६८ शुद्धा प्राणोज्झिता भूमिर्यथा स्यादग्धमृत्तिका । भूजीवोऽद्यैव भूमौ यो दागेष्यति गत्यन्तरात् ॥६९ भूरेव यस्य कायोऽस्ति यद्वानन्यगतिर्भुवः । भूशरीरस्तदात्वेऽस्य स भूकाय इत्युच्यते ॥७० भूकायिकस्तु भूमिस्थोऽन्यगतौ गन्तुमुत्सुकः । स समुद्घातावस्थायां भूकायिक इति स्मृतः ॥७१ एवमग्निजलादीनां भेदाश्चत्वार एव ते । प्रत्येकं चापि ज्ञातव्याः सर्वज्ञाज्ञानतिक्रमात् ॥७२ प्रकार इन जीवोंके प्राण होते हैं। यह सब समझकर गृहस्थ लोगोंको प्राणोंकी रक्षा करनी चाहिये ॥६२-६३।। यहाँपर प्राण शब्दसे एकेन्द्रिय वा दोइन्द्रिय आदि जोव समझने चाहिये। इसका भी कारण यह है कि संसारमें प्राणधारी जीव ही हैं, जीवोंके ही प्राण होते हैं । जीवोंके सिवाय अन्य किसी पदार्थके भी प्राण नहीं होते ॥६४।। यहाँपर अहिंसा वा जीवोंकी रक्षाका प्रकरण है इसलिये प्रसंग पाकर संक्षेपसे जीवोंके भेद बतलाते हैं क्योंकि जीवोंके भेदोंको और उनके स्वरूपको जानकर ही श्रावक लोग उन जीवोंकी रक्षा कर सकते हैं ॥६५॥ यदि जीवोंके अत्यन्त संक्षेपसे भेद किये जायँ तो चौदह होते हैं । यदि समस्त जीवोंके विस्तारके साथ भेद किये जायें तो असंख्यात भेद होते हैं तथा यदि भावोंकी अपेक्षासे उन जीवोंके भेद किये जायें तो अनन्त भेद हो जाते हैं ॥६६॥ आगे चौदह जीवसमासोंको या जीवोंके चौदह भेदोंको बतलाते हैं । जीवोंके मूल भेद दो हैं-त्रस और स्थावर | उनमेंसे स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । आगे सबसे पहले इन्हीं स्थावर जीवोंके भेद बतलाते हैं। पृथ्वीकायिक जीवोंके दो भेद हैं-स्थूल और सूक्ष्म तथा इन दोनोंके भी दो-दो भेद हैं-एक पर्याप्तक और दूसरे अपर्याप्तक ॥६७॥ इन चार भेदोंमेंसे भी प्रत्येकके चार-चार भेद होते है-शुद्धपृथ्वी, पृथ्वीजीव, पृथ्वीकाय और पृथ्वीकायिक ॥६८॥ जो पृथ्वी प्राणरहित है उसको शुद्ध पृथ्वी कहते हैं जैसे जली हुई मिट्टी। जो जीव किसी दूसरी गतिसे पृथ्वीमें आनेवाला है अर्थात् जिसने अन्य गति छोड़ दी है, दूसरी गतिका शरीर छोड़ दिया है और पृथ्वीकायिकमें उत्पन्न होनेवाला है जो पृथ्वीकायिकमें उत्पन्न होनेके लिये विग्रहगतिमें आ रहा है ऐसे जीवको पृथ्वीजीव कहते हैं ॥६९॥ पृथ्वी ही जिसका शरीर है अथवा जो पृथ्वीकायमें विद्यमान है, पृथ्वीकायके सिवाय जिसकी और कोई गति नहीं है अथवा पृथ्वीरूप शरीरको जो धारण कर रहा है उसको पृथ्वीकाय कहते हैं ॥७०॥ तथा जो जीव अभी पृथ्वीकायमें विद्यमान है परन्तु पृथ्वीकायकी गतिको छोड़कर अन्य गतिमें जानेके लिए तैयार है तथा अन्य गतिमें जानेके लिए समुद्घात कर रहा है उसको पृथ्वीकायिक कहते हैं ॥७१।। इसी प्रकार जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिके भी चार-चार भेद समझने चाहिए अर्थात् जल, जलजीव, जलकाय और जलकायिक ये चार जलके भेद हैं । अग्नि, अग्निजीव, अग्निकाय और अग्निकायिक ये चार अग्निके भेद हैं। वायु, वायुजीव, वायुकायिक, वायुकाय ये चार वायुके भेद हैं। वनस्पति, वनस्पतिजीव, वनस्पतिकाय और वनस्पतिकायिक ये चार वनस्पतिके भेद हैं। इन सब भेदोंका स्वरूप भगवान् सर्वज्ञदेवकी आज्ञाके अनुसार जान लेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy