SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाटीसंहिता न निषिद्धोऽथवा सोऽपि निर्दम्भश्चेद्वतोन्मुखः । मृदुमतिभॊगाकाङ्क्षी स्याच्चिकित्स्यो न बञ्चकः ९ अर्थात्कालादिसंलब्धो लब्धसद्दर्शनान्वितः । देशतः सर्वतश्चापि व्रती तत्वविदिष्यते ॥१० विनाऽप्यनेहसो लब्धः कुर्वन्नपि व्रतक्रियाम् । हठादात्मबलाद्वापि व्रतंमन्योऽस्तु का क्षतिः ॥११ किचात्मनो यथाशक्ति तथेच्छन्वा प्रतिक्रियाम् । कस्कोऽपि प्राणिरक्षार्थं कुर्वन्नान वारितः ॥१२ द्रव्यमात्रक्रियारूढो भावरिक्ता यदृच्छतः । स्वल्पभोगं फलं तस्यास्तन्माहात्म्यादिहाश्नुते ॥१३ निर्देशोऽयं यथोक्तायाः क्रियायाः प्रतिपालनात् । छद्मनाऽथ प्रमादाद्वा नायं तस्याश्च साधकः ॥१४ अभव्यो भव्यमात्रो वा मिथ्यादृष्टिरपि क्वचित् । देशतः सर्वतो वापि गृह्णाति च व्रतक्रियाम् ॥१५ हेतुश्चारित्रमोहस्य कर्मणो रसलाघवात् । शुक्ललेश्याबलात्कश्चिदाहतं व्रतमाचरेत् ॥१६ यथास्वं व्रतमादाय यथोक्तं प्रतिपालयेत् । सानुरागः क्रियामात्रमतिचारविजितम् ॥१७ एकादशाङ्गपाठोऽपि तस्य स्याद् द्रव्यरूपतः । आत्मानुभूतिशून्यत्वाद्भावतः संविदुज्झितः ॥१८ नहीं हो सकता ॥३-८॥ अथवा कोई पुरुष छलकपट रहित है और व्रत धारण करना चाहता है उसके लिए व्रत धारण करने का निषेध नहीं है क्योंकि जिसकी बुद्धि कोमल है अर्थात् जो दयाल है और भोगोंकी आकांक्षा रखता है ऐसा पुरुष यदि वंचव्य न हो तो वह चिकित्साके योग्य है ॥९।। इस सबका अभिप्राय यह है कि काललब्धि आदि समस्त सामग्रोके मिलनेपर जब सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब एकदेश पापोंका त्याग करनेवाला अथवा पूर्णरूपसे पापोंका त्याग करनेवाला व्रती (अणुव्रती या महाव्रती) आत्मतत्त्वका जानकार गिना जाता है ॥१०॥ जिस किसी मनुष्यको काललब्धि प्राप्त नहीं हुई है तथा काललब्धिके विना जिसको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं है ऐसा मिथ्यादृष्टि पुरुष भी यदि हठपूर्वक अथवा केवल अपने बलसे व्रत पालन करे, तो भी उसमें कोई हानि नहीं है अन्तर केवल इतना ही है कि विना सम्यग्दर्शनके वह व्रती नहीं कहला सकता किन्तु 'वतमान्य' (विना व्रतोंके भी अपनेको व्रती माननेवाला) माना जाता है ॥११।। अथवा यह साधारण नियम समझना चाहिए कि यदि कोई भी पुरुष प्राणियोंकी रक्षा करनेके लिये चाहे मिथ्यादृष्टि व्रतोंका पालन करे अथवा व्रत पालन करनेकी इच्छा करे तो आर्यव्रती पुरुष उसका निषेध कभी नहीं करते हैं ॥१२॥ जिस पुरुषके परिणाम शुद्ध नहीं हैं अथवा जो पुरुष अपने व्रतोंके पालन करने में अपने भाव या परिणाम नहीं लगाता तथापि जो अपनी इच्छानुसार व्रतोंकी बाह्य क्रियाओंको पूर्णरीतिसे पालन करता है उसको भी उन व्रतोंके पालन करनेसे थोड़ेसे भोगोपभोगोंकी सामग्री प्राप्त हो ही जाती है ॥१३।। इसमें भी इतना विशेष है कि जो व्रतरूप क्रियाओंको शास्त्रानुसार पालन करते हैं, उन्हींको उनके पालन करनेका फल मिलता है। जो पुरुष किसी छल-कपटसे अथवा प्रमादसे व्रतरूप क्रियाओं पालन करते हैं उनको उन व्रतोंके पालन करनेका कोई किसी प्रकारका फल प्राप्त नहीं होता ॥१४॥ भव्य जीव या अभव्यजीव अथवा कभी-कभी मिथ्यादृष्टि भी एक देश या सर्वदेश व्रतोंको (अणुव्रतोंको या महाव्रतोंको) धारण कर लेते हैं ॥१५॥ व्रतोंके धारण करनेके लिए चारित्रमोहनीय कर्मका मन्दोदय कारण है । चारित्रमोहनीय कर्मके मन्द उदय होनेपर तथा शुक्ललेश्याके बलसे यह जीव भगवान् अरहन्तदेवके कहे हुए व्रतोंको धारण कर सकता है ।।१६।। अपनी शक्तिके अनुसार अणुव्रत या महाव्रतोंको धारण कर उनको शास्त्रानुसार पालन करना चाहिये तथा बड़े प्रेमसे अतिचार रहित पालन करना चाहिये और पूर्ण क्रिया या विधिके साथ पालन करना चाहिये ॥१७॥ कोई मुनि मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। वे यद्यपि ग्यारह अंगके पाठी होते हैं और महाव्रतादि क्रियाओंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy