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________________ चतुर्थ सर्ग शुद्धदर्शनिकोद्दान्तो भावः सातिशयः क्षमी । ऋजुजितेन्द्रियो घोरो व्रतमादातुमर्हति ॥ १ शरीरभवभोगेभ्यो विरक्तो दोषदर्शनात् । अक्षातीतसुखेषो यः स स्यान्नूनं व्रतार्हतः ॥२ नस्यादणुव्रतार्हो यो मिथ्यान्धतमसा ततः । लोलुपो लोलचक्षुश्च वाचालो निर्दयः कुधीः ॥३ मूढो गूढो शठप्रायो जाग्रन्मूर्च्छापरिग्रहः । दुर्विनीतो दुराराध्यो निर्विवेकी समत्सरः ॥४ निन्दकश्च विना स्वार्थं देवशास्त्रेष्वसूयकः । उद्धतो वर्णवादी च वावदूकोऽप्यकारणे ॥५ आततायी क्षणादन्यो भोगाकाङ्क्षी व्रतच्छलात् । सुखाशयो धनाशश्च बहुमानी च कोपतः ॥ ६ मायावी लोभपात्रश्च हास्याद्युद्रेकलक्षितः । क्षणादुष्णः क्षणाच्छीतः क्षणाद्भीरुः क्षणाद्भटः ॥७ इत्याद्यनेकदोषाणामास्पदः स्वपदास्थितः । इच्छन्नपि व्रतादोंश्च नाधिकारी स निश्चयात् ॥८ जिसका सम्यग्दर्शन शुद्ध है, जो अनेक प्रकारके तपश्चरणादिके क्लेश सहन करने में समर्थ है, जिसके परिणामोंकी शुद्धता अत्यन्त विलक्षण और सबसे अधिक है, जो क्षमाको धारण करनेवाला है, जिसका मन, वचन, काय सरल है, जो इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला है और जो अत्यन्त धीरवीर है वही पुरुष व्रतोंको धारण कर सकता है ||१|| जो मनुष्य शरीर, संसार और इन्द्रियोंके भोगोंको सदा नश्वर और असार समझता है और इसीलिये जो शरीर संसार और भोगोंसे सदा विरक्त रहता है, इसके साथ जो आत्मजन्य अतीन्द्रिय सुखकी सदा इच्छा करता रहता है वही मनुष्य निश्चयसे व्रत धारण करनेके योग्य होता है ||२|| जो पुरुष मिथ्यात्वरूपी घोर अन्धकारसे व्याप्त हो रहा है, जो अत्यन्त चंचल है, जिसके नेत्र सदा चंचल रहते हैं, जो बहुत बोलनेवाला है, जो निर्दयी है, जिसकी बुद्धि विपरीत है, जो अत्यन्त मूर्ख है अथवा अत्यन्त मूर्खके समान है, जिसका मूर्च्छारूप परिग्रह अत्यन्त प्रज्वलित हो रहा है अथवा जिसकी तृष्णा या परिग्रह बढ़ानेकी लालसा बहुत बढ़ी हुई है, जो अत्यन्त अविनयी है, जो अधिक सेवा करनेसे भी प्रसन्न नहीं होता अर्थात् जिसका हृदय अत्यन्त कठोर है, जो निर्विवेकी है, सबसे ईर्ष्या, द्वेष करनेवाला है, सबकी निन्दा करनेवाला है तथा जो विना किसी अपने प्रयोजनके भी दूसरेकी निन्दा करता रहता है, जो देव शास्त्रोंसे भी ईर्ष्या द्वेष करता है, जो अत्यन्त उद्धृत है, जो अत्यन्त निन्दनीय है, जो व्यर्थ ही बकवास करता रहता है तथा विना कारणके बकवाद करता रहता है, जो अनेक प्रकारके अत्याचार करनेवाला है, जिसका स्वभाव क्षण-क्षण में बदलता रहता है, जिसे भोगोपभोगों की तीव्र लालसा है, जो व्रतोंका बहाना बनाकर अनेक प्रकारके भोगोपभोग सेवन करता है, जो सदा इन्द्रिय सम्बन्धी सुख चाहता रहता है, जिसको धनकी तीव्र लालसा है जो बहुत ही अभिमानी है, बहुत ही क्रोधी है बहुत ही मायाचारी है और बहुत ही लोभी है, जिसके हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा, रति, अरति आदि कषाएं तीव्र हैं, जो क्षणभरमें शान्त हो जाता है और क्षणभरमें क्रोधसे उबल पड़ता है, जो क्षणभरमें भयभीत हो जाता है और क्षणभरमें ही बहुत बड़ा शूरवीर बन जाता है, इस प्रकार जिसमें अनेक दोष भरे हुए हैं और जो अपने आत्माके स्वरूपमें लीन नहीं है ऐसा पुरुष यदि व्रतोंके धारण करनेकी इच्छा भी करे तो भी निश्चयसे व्रतोंके धारण करनेका अधिकारी नहीं होता अतएव ऐसा पुरुष अणुव्रत धारण करनेके योग्य भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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