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________________ प्रावकाचार-संग्रह न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः । यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विन्दन्ति केचन ॥१९ ततः पाठोऽस्ति तेषूच्चैः पाठस्याप्यस्ति ज्ञातृता । ज्ञातृतायां च श्रद्धानं प्रतीतीरोचनं क्रिया ॥२० अर्थात्तत्र यथार्थत्वमित्याशङ्कयं न कोविदः । जीवाजीवास्तिकायानां यथार्थत्वं न सम्भवात् ॥२१ किन्तु कश्चिदद्विशेषोऽस्ति प्रत्यक्षाज्ञानगोचरः । येन तज्ज्ञानमात्रेऽपि तस्याज्ञानं हि वस्तुतः ॥२२ तत्रोल्लेखोऽस्ति विख्यातः परीक्षादिक्षमोऽपि यः। न स्याच्छुदानुभूतिः सा तत्र मिथ्याशि स्फुटम् ॥२३ अस्तु सूत्रानुसारेण स्वसंविदविरोधिना। परीक्षायाः सहत्वेन हेतोर्बलवताऽपि च ॥२४ दृश्यते पाठमात्रत्वाद् ज्ञानस्यानुभवस्य च । विशेषोऽध्यक्षको यस्मादृष्टान्तादपि संमतः ॥२५ यथा चिकित्सकः कश्चित्पराङ्गगतवेदनाम् । परोपदेशवाक्याद्वा जानन्नानुभवत्यपि ॥२६ तथा सूत्रार्थवाक्यार्थात् जाननाप्यात्मलक्षणः । नास्वादयति मिथ्यात्वकर्मणो रसपाकतः ॥२७ बाह्यरूपसे पूर्णरूपसे पालन करते हैं तथापि उन्हें अपने शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं होता इसलिए वे अपने परिणामोंके द्वारा सम्यग्ज्ञानसे रहित ही होते हैं ॥१८॥ यहाँपर कदाचित् कोई यह शंका करे कि ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनिको जो ग्यारह अंगका ज्ञान होता है वह केवल पाठमात्र होता है उसके अर्थों का ज्ञान उसको नहीं होता । परन्तु यह शंका करना भी ठीक नहीं है क्योंकि शास्त्रोंमें यह कथन आता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनियोंके उपदेशसे अन्य कितने ही भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है अर्थात् उनके उपदेशको सुनकर कितने ही भव्यजीव अपने आत्मस्वरूपको पहचानने लगते हैं उन्हें अपने शुद्ध आत्माका अनुभव हो जाता है और वे रत्नत्रय प्राप्तकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥१९।। इससे सिद्ध होता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टि मुनियोंके ग्यारह अंगोंका ज्ञान पाठ मात्र भी होता है और उस पाठके सब अर्थोंका ज्ञान भी होता है। उस ज्ञानमें श्रद्धान होता है, प्रतीति होतो है, रुचि होती है और पूर्ण क्रिया होती है ।।२०।। इतना सब होनेपर भी विद्वानोंको उस ज्ञानमें या श्रद्धानमें अथवा क्रिया में यथार्थपनेकी शंका नहीं करनी चाहिये। भावार्थ-ऐसे ऊपर लिखे मिथ्यादृष्टि मुनियोंका वह ज्ञान श्रद्धान या आचरण यथार्थ होता है ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि ऐसे मिथ्यादष्टि मनियोंके जीव अजीव आदि पदार्थोंके ज्ञान या श्रद्धानके यथार्थ होनेकी सम्भावना भी नहीं होती है । भावार्थ-ऐसे मिथ्यादष्टि मनियोंका ज्ञान श्रद्धान या आचरण आदि सब मिथ्या ही होता है यथार्थ या सम्यक नहीं होता ॥२॥ ग्यारह अंगोंको जाननेवाले ऐसे मिथ्यादष्टि मुनियोंके ज्ञानमें प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा जानने योग्य कोई ऐसी विशेषता होती है जिससे इतना ज्ञान होनेपर भी वह ज्ञान वास्तवमें मिथ्याज्ञान कहलाता है ॥२२॥ इसमें इतना और समझ लेना चाहिये कि यद्यपि ऐसा मिथ्यादृष्टि-मुनि जीवादिक पदार्थोंकी परीक्षा कर सकता है तो भी उसके शुद्ध आत्माको अनुभूति कभी नहीं होती ॥२३॥ अथवा स्वानुभूतिका अविरोधी जो एकादशांग सूत्रपाठ है वह बना रहे, परन्तु परीक्षाको योग्यतासे और बलवान हेतुसे यह देखा जाता है कि पाठमात्र ज्ञानसे और अनुभवमें प्रत्यक्ष विशेषता या भेद है तथा दृष्टान्तसे भी यही बात सिद्ध होती है जैसा कि आगे दिखलाते हैं ॥२४-२५।। जिस प्रकार कोई वैद्य दूसरेके उपदेशके वाक्योंसे दूसरेके शरीरमें होनेवाले रोगोंके दुःखोंको जानता है परन्तु वह उन दुःखोंका अनुभव नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि पुरुष शास्त्रोंमें कहे हुए वाक्योंके अनुसार आत्माके स्वरूपको जानता है तथापि मिथ्यात्वकर्मके उदयसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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