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________________ श्रावकाचार-संग्रह नैवं हेतोरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु । बन्धस्य नित्यतापतेर्भवेन्मुक्तरसम्भवः ॥२२९ ततोऽस्त्यन्तःकृतो भेदः शुद्धनांशांशतस्त्रिषु । निविशेषात्समस्त्वेष पक्षो माभूबहिः कृतः ॥२३० किञ्चाऽस्ति यौगिको रूढि प्रसिद्धा परमागमे । विना साधुपदं न स्यात्केवलोत्पत्तिरअसा ॥२३१ तत्राकृतमिदं सम्यक साक्षात्सर्वार्थशिनः । क्षणमस्ति स्वतः श्रेण्यामधिरूढस्य तत्पदम् ॥२३२ यतोऽवश्यं स सूरि पाठकः श्रेण्यनेहसि । कृत्स्नचिन्तानिरोधात्मलक्षणं ध्यानमाश्रयेत् ॥२३३ ततः सिद्धमनायासात्तत्पदत्वं तयोरिह । नूनं बाह्योपयोगस्य नावकोशोऽस्ति तत्र यत् ॥२३४ न पुनश्चरणं तत्र छेदोपस्थापना वरम् । प्रागादाय क्षणं पश्चात्सूरिः साधुपदं श्रयेत् ॥२३५ उक्तं दिग्मात्रमत्राऽपि प्रसङ्गादगुरुलक्षणम् । शेषं विशेषतो ज्ञेयं तत्स्वरूपं जिनागमात् ॥२३६ धर्मो नीचपदादुच्चैः पदे धरति धार्मिकम् । तत्राजवञ्जवो नीचैः पदमुच्चैस्तदत्ययः ॥२३७ सम्यग्दृग्ज्ञप्तिचारियं धर्मो रत्नत्रयात्मकः । तत्र सद्दर्शन मूलं हेतुरद्वैतमेतयोः ॥२३८ ततः सागाररूपो वा धर्मोऽनागार एव वा । सहक-पुरस्सरो धर्मो न धर्मस्तद्विना क्वचित् ॥२३९ रूढितोऽधिवपुर्वाचां क्रिया धर्मः शुभावहा । तत्रानुकूलरूपा वा मनोवृत्तिः सहानया ॥२४० सा द्विधा स च सागारानागाराणां विशेषतः । यतः क्रियाविशेषत्वान्नूनं धर्मो विशेषतः ॥२४१ तत्र हिंसानृतस्तेयाब्रह्मकृत्स्नपरिग्रहात् । देशतो विरतिः प्रोक्तं गृहस्थानामणुव्रतम् ॥२४२ समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर यह लक्षण क्षीणमोही और उनके समीपवर्ती गुणस्थानवालोंमें अतिव्याप्त हो जाता है और यदि यहाँ भी इच्छापूर्वक क्रिया मानी जाती है तो बन्धको नित्यताकी आपत्ति प्राप्त होनेसे मुक्ति असम्भव हो जाती है ॥२२९॥ इसलिये विशुद्धिके नाना अंशोंकी अपेक्षासे अन्तरंगकृत भेद है यह पक्ष सामान्यरूपसे तीनोंमें माना जाना चाहिये । इसे बाह्य क्रियाको अपेक्षासे मानना उचित नहीं है ॥२३०॥ दूसरे परमागममें जो यह सार्थकरूढ़ि प्रसिद्ध है कि साधुपदको प्राप्त किये विना नियमसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है ॥२३१।। सो इस विषयमें समस्त पदार्थों को साक्षात् जाननेवाले सर्वज्ञदेवने यह ठीक हो कहा है कि श्रेणीपर चढ़े हुए बके व साधुपद क्षणमात्रमें स्वतः प्राप्त हो जाता है ॥२३२।। क्योंकि चाहे आचार्य हो या उपाध्याय, अंणोपर चढ़नेके समय वह नियमसे सम्पूर्ण चिन्ताओंके निरोध रूप ध्यानको धारण. करता है ।।२३३॥ इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि आचार्य और उपाध्यायके श्रेणी आरोहणके समय साधुपद अनायास होता है क्योंकि वहाँपर बाह्य उपयोगको कोई अवकाश नहीं है ॥२३४।। किन्तु ऐसा नहीं है कि आचार्य पहले छेदोपस्थापना रूप उत्तम चारित्रको ग्रहण करके पश्चात् साधुपदको धारण करता है ।।२३५।। इस प्रकार यहाँपर प्रसंगवश संक्षेपसे गुरुका लक्षण कहा। उनका शेषस्वरूप विशेषरूपसे जिनागमसे जानना चाहिये ॥२३६।। जो धर्मात्मा पुरुषको नीच स्थानसे उठाकर उच्चस्थानमें धरता है वह धर्म है। यहाँ संसार नीच स्थान है और उसका नाशरूप मोक्ष उच्चस्थान है ॥२३७॥ वह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन रूप है। उन तीनोंमेंसे सम्यग्दर्शन इन दोनोंके समीचीनपनेका एकमात्र कारण है ॥२३८|| इसलिए गृहस्थ धर्म या मुनिधर्म जो भी धर्म है वह सम्यग्दर्शनपूर्वक होनेसे ही धर्म है। सम्यग्दर्शनके विना कहीं भी धर्म नहीं ॥२३९।। फिर भी रूढ़िसे शरीर और वचनको शुभफल देनेवाली क्रियाको धर्म कहते हैं या शरीर और वचनकी शुभ क्रियाके साथ जो अनुकूल मनकी प्रवृत्ति होती है उसे धर्म कहते हैं ।।२४०। सम्पूर्ण गृहस्थ और मुनियोंके भेदसे वह क्रिया दो प्रकारकी है, क्योंकि क्रियाके भेदसे ही धर्ममें भेद होता है ।।२४१।। इन दोनोंमेंसे जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और समस्त परिग्रह इनसे एकदेश विरति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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