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लाटीसंहिता लेशतोऽस्ति विशेषश्चेन्मिथस्तेषां बहिः कृतः । का क्षतिर्मूलहेतोः स्यादन्तःशुद्धिसमन्वितः ॥२१८ नास्त्यत्र नियतः कश्चिद्युक्तिस्वानुभवागमात् । मन्दादिरुदयस्तेषां सूर्युपाध्यायसाधुषु ॥२१९ प्रत्येकं बहवः सन्ति सूर्युपाध्यायसाधवः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टभवैश्चैकैकशः पृथक् ॥२२० कश्चित्सूरिः कदाचिद्वै विशुद्धि परमां गतः । मध्यमां वा जघन्यां वा स्वोचितां पुनराश्रयेत् ॥२२१ हेतुस्तत्रोदिता नानाभावांशैः स्पर्द्धकाः क्षणम् । धर्मादेशोपदेशादिहेतु त्र बहिः क्वचित् ॥२२२ परिपाठयानया योज्या: पाठकाः साधवश्च ये । न विशेषो यतस्तेषां नियतः शेषो विशेषभाक् ॥२२३ न तु धर्मोपदेशादि कर्म तत्कारणं बहिः । हेतोरभ्यन्तरस्थापि बाह्यं हेतुर्बहिः क्वचित् ॥२२४ नैवमर्थाद्यतः सर्वं वस्त्वकिञ्चित्करं बहिः । तत्पदं फलवन्मोहादिच्छतोऽप्यान्तरं परम् ॥२२५ किं पुनर्गणिनस्तस्य सर्वतोनिच्छतो बहिः । धर्मादेशोपदेशादिस्वपदं तत्फलं च यत् ॥२२६ नास्यासिद्धं निरोहत्वं धर्मादेशादिकर्मणि । न्यायादक्षार्थकाङ्क्षाया ईहा नान्यत्र जातुचित् ॥२२७ ननु नेहां विना कर्म कर्म नेहां विना क्वचित् । तस्मान्नानीहितं कर्म स्यादक्षार्थस्तु वा न वा ॥२२८
थोड़ी बहुत विशेषता है भी तो वह बाह्य क्रियाकृत ही है क्योंकि इन तीनोंका मूलकारण अन्तरंग शुद्धि जब कि समान है तो बाह्य विशेषतासे क्या हानि है अर्थात् कुछ भी हानि नहीं है ॥२१८।। इन आचार्य, उपाध्याय और साधुके कषायोंका कोई भी मन्दादि उदय नियत नहीं है। युक्ति, स्वानुभव और आगमसे तो यही ज्ञात होता है कि इनके किसी भी प्रकारके अंशोंका उदय सम्भव है ॥२१९||
आचार्य, उपाध्याय और साधु इनमें से प्रत्येकके अनेक भेद हैं जो पृथक्-पृथक् एक-एकके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भावोंकी अपेक्षासे प्राप्त होते हैं ।।२२०।। कोई आचार्य कदाचित् उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होकर फिर मध्यम या जघन्य विशुद्धिको प्राप्त होता है ॥२२।। नाना अविभाग प्रतिच्छेदोंको लिये हुए प्रति समय उदयमें आनेवाले संज्वलन कषायके देशघाति स्पर्धक ही इसका कारण हैं, धर्मका आदेश या उपदेश आदि रूप बाह्यक्रिया इसका कारण नहीं हैं ॥२२२॥ जिस परिपाटीसे आचार्योंके भेद बतलाये हैं इसी परिपाटीसे उपाध्याय और साधुओंके भेद भी घटित कर लेने चाहिये क्योंकि युक्तिसे विचार करनेपर आचार्यसे इनमें अन्तरंगमें और कोई विशेषता शेष नहीं रहती। वे तीनों समान हैं ।।२२३।। शंका-धर्मका उपदेश आदि बाह्यकार्य आचार्य आदिकी विशेषताका कारण रहा आवे, क्योंकि बाह्यहेतु कहींपर आभ्यन्तर हेतुका बाह्य निमित्त होता है ।।२२४|| समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि समस्त बाह्य पदार्थ वास्तवमें अकिञ्चित्कर हैं। अब यदि मोहवश कोई परपदार्थको निज मानता है तो उसके लिये ये पर--आचार्य आदि अवश्य ही फलवाले हैं । अर्थात् इनसे वह सांसारिक प्रयोजनकी सिद्धि कर सकता है ।।२२५।। किन्तु जो बाह्यरूप आचार्य पद और धर्मका आदेश तथा उपदेश आदि रूप उसके फलको सर्वथा नहीं चाहता है उस आचार्यका तो फिर कहना ही क्या है, अर्थात् उसकी अन्तरंग परिणति में ये बाह्यकार्य बिलकुल ही कारण नहीं हो सकते ॥२२६।। धर्मके आदेश आदि कार्यों में आचार्य निरीह होते हैं यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि न्यायसे इन्द्रियोंके विषयोंकी आकांक्षा ही ईहा मानी गई है अन्यत्र की गई इच्छा कभी भी ईहा नहीं मानी गई है ॥२२७॥ शंका-कहीं भी क्रियाके विना इच्छा नहीं होती है और इच्छाके विना क्रिया नहीं होती है इसलिये इन्द्रियोंके विषय रहे या न रहे, तथापि विना इच्छाके क्रिया नहीं हो सकती ? ॥२२८॥
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