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________________ श्रावकाचार-संग्रह किन्तु देवाद्विशद्धचंशः संक्लेशांशोऽथ वा क्वचित् । तद्विशुद्धेविशुद्धचंशः संक्लेशांशादयं पुनः।। २०६ तेषां तीवोदयात्तावदेतावानत्र बाधकः । सर्वतश्चेत्प्रकोपी च नापराधोस्त्यतोऽपरः ॥२०७ तेनात्रैतावता ननं शुद्धस्यानुभवच्युतिः। कर्तुं न शक्यते यस्मादत्रास्त्यन्यः प्रयोजकः ॥२०८ हेतुः शुद्धात्मनो ज्ञाने शमो मिथ्यात्वकर्मणः । प्रत्यनीकस्तु तत्रोच्चैरशमस्तस्य व्यत्ययात् ।।२०९ दृग्मोहेऽस्तङ्गते पुंसः शुद्धस्यानुभवो भवेत् । न भवेद्विघ्नकरः कश्चिच्चारित्रावरणोदयः ॥२१० न चाकिञ्चित्करश्चैवं चारित्रावरणोदयः । दृग्मोहस्य क्षतेनालमलं स्वस्य कृते च यः ॥२११ कार्य चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मनः । नात्मदृष्टस्तु दृष्टित्वान्न्याय्यादितरदृष्टिवत् ॥२१२ यथा चक्षुः प्रसन्नं वै कस्यचिदैवयोगतः । इतरत्राक्षतापेऽपि दृष्टाध्यक्षान्न तत्क्षतिः ।।२१३ कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि । नानुद्रेकः कषायाणां चारित्राच्च्युतिरात्मनः ॥२१४ ततस्तेषामनुद्रेकः स्यादुद्रेकोऽथवा स्वतः । नात्मदृष्टेः क्षतिनं दृग्मोहस्योदयादृते ।।२१५ अथ सूरिरुपाध्यायः द्वावेतौ हेतुतः समौ । साधुरिवात्मज्ञौ शुद्धौ शुद्धौ शुद्धोपयोगिनी ॥२१६ नापि कश्चिद्विशेषोऽस्ति द्वयोस्तरतमो मिथः । नैताभ्यामन्तरुत्कर्षः साधोरप्यतिशायनात् ॥२१७ स्पर्धकोंके मन्द उदय होनेसे नियमसे विशुद्धता होती है और देशघाति स्पर्धकोंके तीव्र उदय होनेसे संक्लेश होता है यह विधि नहीं मानी गई है ॥२०५।। किन्तु दैववश उनके कहीं पर विशुद्धयंश भी होता है और देववश कहीं पर संक्लेशांश भी होता है । यदि चारित्रकी विशुद्धि है तो विशुद्धयंश होता है और यदि संक्लेशांशका उदय होता है तो संक्लेश भी होता है ।।२०६।। उन देशघाति स्पर्धकोंका तीव्र उदय तो केवल इतना ही आचार्यके बाधक है कि यदि वह सर्वथा प्रकोपका कारण है ऐसा मान लिया जाय तो इससे बड़ा और कोई अपराध नहीं है ॥२०७।। इसलिये यहाँ पर इतने मात्रसे आचार्यके शुद्ध अनुभवकी च्युति नहीं की जा सकती, क्योंकि इसका कारण कोई दूसरा है ॥२०८॥ मिथ्यात्व कर्मका अनुदय शुद्ध आत्माके ज्ञानमें कारण है और उसका तीव्र उदय इसमें बाधक है, क्योंकि मिथ्यात्वका उदय होने पर शुद्ध आत्माके ज्ञानका विनाश देखा जाता है ॥२०९।। दर्शनमोहनीयका अभाव होनेपर शुद्ध आत्माका अनुभव होता है इसलिये चारित्रावरणका किभी भी प्रकारका उदय उसका बाधक नहीं है ॥२१०।। एतावता चारित्रावरणका उदय अकिंचित्कर है यह बात नहीं है क्योंकि यद्यपि वह दर्शनमोहनीयका कार्य करने में असमर्थ है तथापि वह अपना कार्य करनेमें अवश्य समर्थ है ।।२११।। चारित्र-मोहनीयका कार्य आत्माको चारित्रसे च्युत करना है आत्मदृष्टिसे च्युत करना उसका कार्य नहीं, क्योंकि न्यायसे विचार करने पर इतर दृष्टियोंके समान वह भी एक दष्टि है ।।२१२॥ जिस प्रकार दैवयोगसे यदि किसोकी एक आँख निर्मल है तो यह प्रत्यक्षसे देखते हैं कि दूसरी आँख में संतापके होने पर भी उसकी हानि नहीं होती। उसी प्रकार चारित्र मोहके उदयसे चारित्रगुण में विकारके होने पर भी आत्माके सम्यक्त्व गुणको हानि नहीं होती ॥२१३।। जब तक कषायोंका अनुदय है तभी तक चारित्र है और कषायोंका उदय ही आत्माका चारित्रसे च्युत होना है ॥२१४॥ इसलिये चाहे कषायोंका अनुदय हो चाहे उदय हो पर दर्शनमोहनीयके उदयके बिना इतने मात्रसे सम्यग्दर्शनकी कोई हानि नहीं होती ॥२१५॥ अन्तरंग कारणकी अपेक्षा विचार करने पर आचार्य और उपाध्याय ये दोनों ही समान हैं, साधु हैं, साधुके समान आत्मज्ञ हैं, शुद्ध हैं और शुद्ध उपयोगवाले हैं ॥२१६।। इन दोनोंमें परस्पर तरतमरूप कोई विशेषता नहीं है और न इन दोनोंसे साधमें भी अतिशयरूपसे कोई भीतरी उत्कर्ष पाया जाता है ।।२१७।। यदि इनमें परस्पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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