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________________ लाटीसंहिता यतेर्मूलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलवत्तरोः । नात्राप्यन्यतरेणोना नातिरिक्ता कदाचन ॥२४३ सर्वैरेव समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिव्रतम् । न व्यस्तैव्यंस्तमात्रं तु यावदंशत्रयावदपि ॥ २४४ उक्तं च वदसमिदिदियरोधो लोचो आवसयमचेल मन्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥२० एते मूलगुणाः प्रोक्ताः यतीनां जैनशासने । लक्षाणां चतुरशीतिर्गुणाश्चोत्तरसंज्ञकाः ॥ २४५ ततः सागारधर्मो वाऽनगारो वा यथोदितः । प्राणिसंरक्षणं मूलमुभयत्राविशेषतः ॥ २४६ उक्तमस्ति क्रियारूपं व्यासाद्व्रत कदम्बकम् । सर्वसावद्ययोगस्य तदेकस्य निवृत्तये ॥ २४७ अर्थाज्जैनोपदेशोऽयमस्त्यादेशः स एव च । सर्वसावद्ययोगस्य निवृत्तिर्व्रतमुच्यते ॥ २४८ सर्वशब्देन तत्रान्तर्बहिर्वतिपदार्थतः । प्राणोच्छेदो हि सावद्यं सैव हिंसा प्रकीर्तिता ॥ २४९ योगस्तत्रोपयोगो वा बुद्धिपूर्वः स उच्यते । सूक्ष्मश्चाबुद्धिपूर्वो यः स स्मृतो योग इत्यपि ॥२५० तस्याभावो निवृत्तिः स्याद्व्रतं चार्थादिति स्मृतिः । अंशात्साप्यंशतस्तत्सा सर्वतः सर्वतोऽपि तत् ॥ २५१ सर्वतः सिद्धमेवैतद् व्रतं बाह्यं दयाङ्गिषु । व्रतमन्तः कषायाणां त्यागः सेवात्मनि क्रिया ॥२५२ लोकासंख्यातमात्रास्ते यावदागादयः स्फुटम् । हिंसायास्तत्परित्यागो व्रतं धर्मोऽथवा किल ॥२५३ ७१ है वह गृहस्थोंका अणुव्रत कहा गया है || २४२ ॥ | यतिके अट्ठाईस मूलगुण होते हैं । वे ऐसे हैं जैसे कि वृक्षका मूल होता है । कभी भी इनमेंसे न तो कोई कम होता है और न अधिक ही होता है ||२४३|| समस्तरूप इन सब गुणोंके द्वारा ही पूरा पूरा मुनिव्रत सिद्ध होता है, व्यस्तरूप इन सब गुणोंके द्वारा नहीं, क्योंकि एक अंशको ग्रहण करनेवाले नयकी अपेक्षा तो वह व्यस्तरूप ही सिद्ध होता है, पूरा मुनिव्रत नहीं सिद्ध होता || २४४ ॥ कहा भी है- 'पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँचों इन्द्रियोंका निरोध करना, केशलोंच, छह आवश्यक, नग्न रहना, स्नान नहीं करना, जमीनमें सोना, दन्तधावन नहीं करना, खड़े होकर आहार लेना और एक बार भोजन करना ये अट्ठाईस मूलगुण है ||२०|| Jain Education International जैनशासन में यतियों के ये मूलगुण कहे हैं। उनके उत्तरगुण चौरासी लाख होते हैं || २४५ || इसलिये जैसा सागारधर्मं कहा गया है और जैसा मुनिधर्म कहा गया है उन दोनोंमें सामान्यरीतिसे प्राणियों का संरक्षण मूल है || २४६ || इसी प्रकार विस्तारसे क्रियारूप जितना भी व्रतोंका समुदाय कहा गया है वह केवल एक सर्वसावद्ययोगकी निवृत्तिके लिये ही कहा गया है || २४७|| अर्थात् जिनमतका यही उपदेश है और यही आदेश है कि सर्वसावद्ययोगकी निवृत्तिको ही व्रत कहते हैं ॥२४८|| यहाँपर सर्व शब्दसे उसका यौगिक अर्थ अन्तरंग और बहिरंग वृत्ति लिया गया है तथा सावद्य शब्दका अर्थ प्राणोंका छेद करना है और वही हिंसा कही गई है। इस हिंसा में जो बुद्धिपूर्वक उपयोग होता है वह योग है या जो अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्म उपयोग होता है वह भी योग है ॥२४९ - २५० ।। तथा इस सर्वसावद्ययोगका अभाव होना ही उससे निवृत्ति है और वही वास्तवमें वृत माना गया है । यदि सर्वंसावद्ययोगकी निवृत्ति अंशरूपसे होती है तो व्रत भी एकदेश होता है और यदि वह सब प्रकारसे होती है तो व्रत भी सर्वदेश होता है || २५१ || इस प्रकार यह बात सब प्रकार से सिद्ध हो गयी कि प्राणियोंपर दया करना बाह्य व्रत है और कषायोंका त्याग करना अन्तरंग व्रत है । अपनी आत्मापर कृपा भी यही है || २५२॥ क्योंकि जबतक असंख्यात लोकप्रमाण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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