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श्रावकाचार-संग्रह सायमावश्यकं कृत्वा कृतदेवगुरुस्मृतिः । न्याय्ये कालेऽल्पशः स्वप्यात् शक्त्या चाब्रह्म वर्जयेत् ॥२७ निद्राच्छेदे पुनश्चित्तं निर्वेदेनैव भावयेत् । सम्यग्भावितनिर्वेदः सद्यो निर्वाति चेतनः ॥२८ दुःखावर्ते भवाम्भोधावात्मबुद्धयाध्यवस्यता। मोहाद्देहं हहाऽऽत्माऽयं बद्धोऽनादि मुहुर्मया ॥२९ तदेनं मोहमेवाहमुच्छेत्तुं नित्यमुत्सहे । मुच्येतैतच्छये क्षीणरागद्वेषः स्वयं हि ना ॥३० बन्धाद्देहोऽत्र करणान्येतेश्च विषयग्रहः । बन्धश्च पुनरेवातस्तदेनं संहराम्यहम् ॥३१ ज्ञानिसङ्गतपोध्यानैरप्यसाध्यो रिपुः स्मरः । देहात्मभेदज्ञानोत्थवैराग्येणैव साध्यते ॥३२ धन्यास्तेः येऽत्यजन् राज्यं भेदज्ञानाय तादृशम् । धिङ्मादृशः कलत्रेच्छातन्त्रगार्हस्थ्यदुःस्थितान् ॥३३
तत्त्वच के बाद सन्ध्या समय आवश्यक कर्मोको करके किया है देव तथा गुरुका स्मरण जिसने ऐसा यह श्रावक उचित समयमें थोड़ा शयन करे और यथाशक्ति मैथुनको छोड़े ॥२७|| यह श्रावक निद्राके दूर होनेपर फिरसे वैराग्यके द्वारा ही चित्तको भावित करे, क्योंकि अच्छी तरहसे अभ्यास किया है वैराग्यका जिसने ऐसा आत्मा उसी क्षण में प्रशम सुखका अनुभव करता है और अल्प समयमें ही निर्वाणको प्राप्त होता है ॥२८॥ बड़े खेदकी बात है कि दुःख ही हैं आवर्त अर्थात् भवरें जिसमें ऐसे संसाररूपी समुद्र में मोहके कारण शरीरको आत्मा रूपसे निश्चित करनेवाले मेरे द्वारा यह आत्मा अनादिकालसे बार-बार कर्मोंसे बद्ध किया गया। भावार्थ-जिसमें नरकादिकके दुःख ही भवरें हैं ऐसे संसाररूपी समुद्र में अनादिकालसे मोह ( अविद्या ) संस्कारसे शरीरको ही आत्मा मानकर मैंने अपने आत्माको बार-बार कर्मोंसे परतंत्र किया है, यह बड़े खेदकी बात है ॥२९।।
इसलिये मैं सर्वदा इस मोहको ही नष्ट करनेके लिए प्रयत्न करता हूँ, क्योंकि इस मोहके नष्ट होनेपर क्षीण हो गये हैं राग और द्वेष जिसके ऐसा पुरुष स्वयं अर्थात् बिना किसी प्रयत्नके अपने आप मुक्त हो जाता है । भावार्थ-मोहके नष्ट होनेपर मेरा आत्मा रागद्वेषसे रहित होकर स्वयं ( बिना किसी प्रयत्नके ) मुक्तिका लाभ कर सकता है क्योंकि रागद्वेषका मूलकारण मोह है । इसलिये मोहके नाशसे रागद्वेषका विनाश अपने आप होता है। अतएव मुझे मोहके उच्छेदके लिए ही निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये ॥३०॥ पुण्यपापरूप कर्मके उदयसे शरीर, इस शरीर में स्पर्शन आदिक इन्द्रियाँ, इन इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श आदिक विषयोंका ग्रहण तथा इन विषयोंके ग्रहणसे फिर भी कर्मोंका बन्ध होता है इसलिए मैं इस बन्धके कारणभूत विषयोंके ग्रहणको ही जड़से नष्ट करता हूँ। भावार्थ-पुण्यपापात्मक कर्मोके विपाकको बन्ध कहते हैं, उससे देहकी प्राप्ति होती है । देहमें इन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है। और इन विषयोंके उपभोगसे पुनः बन्ध होता है। यह अनर्थपरम्परा अनादिसे चली आती है इसलिये मैं बन्धके मूल विषयग्रहण या परपदार्थमें उपादेय बुद्धिका ही सर्वप्रथम संहार करता हूँ ॥३१॥ ज्ञानियोंकी संगति, तप और ध्यानके द्वारा भी वशमें नहीं हो सकनेवाला कामरूपी शत्रु शरीर और आत्माके भेदविज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले वैराग्यके द्वारा ही वशमें किया जा सकता है ॥३२॥ जो व्यक्ति भेदविज्ञानके लिये उस प्रकारके अर्थात् आज्ञा और ऐश्वर्य आदिकके द्वारा सर्वोत्कृष्ट साम्राज्यको भी छोड़ चुके वे पुरुष प्रशंसनीय हैं, किन्तु स्त्रीको इच्छा है प्रधान जिसमें ऐसे अथवा स्त्रीको इच्छाके अधीन है वृत्ति जिसकी ऐसे गृहस्थाश्रम सम्बन्धी कार्योंक द्वारा दुखी मेरे समान पुरुषोंको धिक्कार है ॥३३॥
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