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________________ सागारधर्मामृत उद्यानभोजनं जन्तुयोधनं कुसुमोच्चयम् । जलक्रीडान्दोलनादि त्यजेदन्यच्च तादृशम् ॥२० यथादोषं कृतस्नानो मध्याह्न धौतवस्त्र युक् । देवाधिदेवं सेवेत निर्द्वन्दः कल्मषच्छिदे ॥२१ आश्रुत्य स्नपनं विशोध्य तदिलां पीठयां चतुष्कुम्भयुककोणायां सकुशधियां जिनपति न्यस्यान्तमाप्येष्टदिक् । नीराज्याम्बुरसाज्यदुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृतोद्वर्तनं । सिक्तं कुम्भजलैश्च गंधसलिलैः सम्पूज्य नुत्वा स्मरेत् ।।२२ सम्यग्गुरूपदेशेन सिद्धचक्रादि चार्चयेत् । श्रुतं च गुरुपादांश्च को हि श्रेयसि तृप्यति ॥२३ ततः पात्राणि सन्तर्प्य शक्तिभक्त्यनुसारतः । सर्वांश्चाप्याश्रितान्काले सात्म्यं भुञ्जीत मात्रया ॥२४ लोकद्वयाविरोधीनि द्रव्यादीनि सदा भजेत् । यतेत व्याध्यनुत्पत्तिच्छेदयोः स हि वृत्तहा ॥२५ । विश्रभ्य गुरुसब्रह्मचारिश्रेयोऽथिभिः सह । जिनागमरहस्यानि विनयेन विचारयेत् ॥२६ विवाह आदिकमें भी भोजन करनेवाला यह श्रावक रात्रिमें बनाये गये भोजनको छोड़े, और नीचजनोंके साथ व्यवहारको नहीं करे । भावार्थ-विवाह आदिके समय कोई सधर्मी जन भोजनके लिए आग्रह करे तो श्रावक जा सकता है। अपने बालबच्चोंके विवाह में भी भोजन कर सकता है। परन्तु ऐसी परिस्थितिमें उसे रात्रिके बने पदार्थ नहीं खाना चाहिए। क्योंकि रातके बने भोजनमें त्रस जीवोंकी विराधना और संमिश्रण नहीं हटाया जा सकता। तथा धर्मसे हीन जनके साथ भी दानग्रहण आदिका व्यवहार नहीं करना चाहिए ॥१९॥ यह श्रावक बगीचामें भोजन करनेको, प्राणियोंके परस्परमें लड़ानेको, फूलोंके ढेरको, जलक्रीडाको, झूला झूलना आदिको छोड़े तथा इस प्रकारके हिंसाके कारण और दूसरे कार्योंको भी छोड़े ॥२०॥ मध्याह्नकालमें दोषके अनुसार किया है स्नान जिसने ऐसा और धुले हुए वस्त्रोंको धारण करनेवाला यह. श्रावक पापोंको नष्ट करनेके लिए आकुलतारहित होता हुआ अरिहन्त भगवान्की आराधना करे ॥२१॥ अभिषेककी प्रतिज्ञा कर अभिषेकके स्थानको शुद्ध करके चारों कोनोंमें चार कलशसहित श्रीवर्णके ऊपर कुशसहित सिंहासनपर जिनेन्द्रभगवान्को स्थापित करके आरती उतारकर इष्टदिशामें स्थित होता हुआ जल, इक्षुरस, घो, दुग्ध और दहीके द्वारा अभिषिक्त करके चन्दनानुलेपन युक्त तथा पूर्वस्थापित कलशोंके जलसे तथा सुगन्धयुक्त जलसे अभिषिक्त जिनराजको अष्टद्रव्यसे पूजा करके स्तुति करके जाप करे ।।२२।यह श्रावक सच्चे गुरुके उपदेशसे सिद्धचक्र आदिको तथा शास्त्रको और गुरुके चरणोंको पूजे, क्योंकि कल्याणके विषयमें कौन पुरुष तृप्त हो सकता है ।।२३॥ तदनन्तर यह श्रावक अपनी शक्ति तथा भक्तिके अनुसार पात्रोंको और सम्पूर्ण अपने आश्रित प्राणियोंको भी अच्छी तरहसे सन्तुष्ट करके योग्य कालमें प्रमाणसे सात्म्यपदार्थ खावे । विशेषार्थ-मध्याह्न कालकी पूजाके बाद पात्रदानके लिए द्वारापेक्षण करे। और प्राप्त सत्पात्रको अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार दान देकर तथा सम्पूर्ण आश्रितोंका भरण पोषण करके योग्यकालमें मात्रासे सात्म्य भोजन करे। प्रकृतिसे अविरुद्ध भोजन जिसके खानेपर हानि नहीं होती उसे सात्म्य कहते हैं ॥२४॥ यह श्रावक इस लोक और परलोकमें विरोध नहीं करनेवाले द्रव्यादिकको सर्वदा सेवन करे तथा व्याधिके उत्पन्न नहीं होने देने और उत्पन्न हुई व्याधिके दूर करनेके विषयमें प्रयत्न करे। क्योंकि वह व्याधि संयमका घात करनेवालो होतो है ।।२५। इसके अनन्तर यह श्रावक विश्राम करके गुरुओंके साथ, सहपाठियोंके साथ तथा हितैषियोंके साथ जिनागमके रहस्योंको विनयपूर्वक विचार करे ॥२६।। उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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