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________________ श्रावकाचार - संग्रह ततश्चावर्जयेत्सर्वान् यथाहं जिनभाक्तिकान् । व्याख्यातः पठतश्चार्हद्वचः प्रोत्साहयेन्मुहुः ॥ १२ स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्धरेच्च विपद्धतान् । पक्वज्ञानदयस्यैव गुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदाः ॥ १३ मध्ये जिनगृहं हासं विलासं दुःकथां कलिम् । निद्रां निष्ठ्यूतमाहारं चतुविधमपि त्यजेत् ॥१४ ततो यथोचितस्थानं गत्वाऽर्थेऽधिकृतान् सुधीः । अधितिष्ठेद् व्यवस्येद्वा स्वयं धर्माविरोधतः ॥ १५ निष्फलेऽल्पफलेऽनर्थंफले जातेऽपि पौरुषे । न विषीदेन्नान्यथा वा हृषेल्लीला हि सा विधेः ॥ १६ कदा माधुकरी वृत्तिः सा मे स्यादिति भावयन् । यथालाभेन सन्तुष्टः उत्तिष्ठेत तनुस्थितौ ॥१७ नीर गोरसधान्यैः शाकपुष्पाम्बरादिभिः । क्रीतैः शुद्ध्यविरोधेन वृत्तिः कल्प्याघलाघवात् ॥१८ सर्धामणोऽपि दाक्षिण्याद् विवाहादौ गृहेऽप्यदन् । निशि सिद्धं त्यजेद् दीनैव्यवहारं च नावहेत् ॥ १९ ६४ आचार्यको पूज करके उस आचार्य के समक्ष घरके चैत्यालय में पहले ग्रहण किये हुए नियम विशेषको प्रगट करे । विशेषार्थ - ईर्यापथसे चलते हुए भी मेरे द्वारा आज प्रमादसे किसी भी काय जीवोंको यदि बाधा पहुंचाई गई हो अर्थात् चार हाथ शोधकर चलने में गलती हुई हो वह् सब गुरुभक्ति के प्रभावसे मिथ्या होवे ऐसे चिन्तवनको ईर्यापथशुद्धि कहते हैं ||११|| इसके अनन्तर यह श्रावक यथायोग्य आदर विनयके द्वारा सम्पूर्ण अरिहन्तके आराधकोंको प्रसन्न करे तथा जिनागमको व्याख्यान करनेवालोंको और अध्ययन करनेवालोंको भी बार बार उत्साहित करे । भावार्थ - मुनियोंको 'नमोऽस्तु', आर्यिकाओं और क्षुल्लकोंको 'वन्दे' तथा श्रावकोंको 'इच्छामि' कहकर विनय करे ||१२|| इसके अनन्तर यह महाश्रावक विधि के अनुसार स्वाध्यायको करे और विपत्तिसे पीड़ित दीन प्राणियोंको विपत्तिसे दूर करे क्योंकि विशेषज्ञानी और दयालु व्यक्तिकं ही सब गुण इच्छापूतिकारक होते हैं ||१३|| यह श्रावक जिनमन्दिर में हँसीको, शृङ्गारयुक्त चेष्टाको, खोटी कथाओंको, कलहको निद्राको, थूकनेको और चारों प्रकारके आहारको छोड़े || १४ || इसके अनन्तर हित और अहितका विवेकी श्रावक द्रव्योपार्जन योग्य दुकान आदि स्थानों को जाकर द्रव्यक उपार्जन करनेमें नियुक्त किये गये व्यक्तियोंको सनाथ करे अर्थात् उनकी वा उनके कार्यों की देख रेख करे अथवा अपने धर्मकी रक्षाका लक्ष्य करके स्वयं व्यवसाय करे || १५ | द्रव्योपार्जन करनेमें तत्पर यह श्रावक पुरुषार्थ के विफल, अल्पफलवाले और वृथा फलवाले होनेपर विषाद नहीं करे । तथा इससे विपरीत होनेपर हर्ष नहीं करे, क्योंकि पुरुषार्थको सफल या निष्फल आदि बनानेवाली निरंकुश प्रवृत्ति पूर्वोपार्जित पुण्यपाप कर्म की है । भावार्थ - अर्थोपार्जनके लिए कृत पुरुषार्थ निष्फल हो जावे; आशाको अपेक्षा कम फल मिले, अपेक्षा से बहुत अधिक फल मिल जावे, अथवा बिलकुल विफल हो जावे, तो भी श्रावकको हर्ष-विषाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह सफलता और असफलता आदि पुरुषार्थका फल नहीं है किन्तु पूर्वापाजित शुभाशुभ कर्मजनित है । इसलिए उसमें हर्ष विषाद नहीं करना चाहिए ॥ १६ ॥ वह जिनागममें वर्णित माधुकरीनामक भिक्षावृत्ति मेरे किस समय होगी इस प्रकार चिन्तवन करनेवाला यह श्रावक जितना धन मिला हो उतने ही धनसे सन्तुष्ट होता हुआ शारीरिक स्वास्थ्यको ठीक रखने में कारणभूत भोजनादिककी प्रवृत्तिमें उद्यम करे ||१७|| श्रावकके द्वारा अपने गृहीत सम्यक्त्व और व्रतोंका घात नहीं करके मूल्य देकर खरीदे गये जल, गोरस, धान्य, लकड़ी, शाक, फूल और वस्त्र आदिक द्वारा पापोंकी लघुतापूर्वक अपने शरीरके निर्वाहका व्यापार किया जाना चाहिये ||१८|| व्यवहारनिर्वाह के प्रयोजनसे साधर्मी भाइयोंके घर में, तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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