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________________ सागारधर्मामृत यथाविभवमादाय जिनाद्यचंनसाधनम् । व्रजन्कोत्कुटिको देशसंयतः संयतायते ॥६ दृष्ट्वा जगबोधकरं भास्करं ज्योतिराहंतम् । स्मरतस्तद्गृहशिरोध्वजालोकोत्सवोऽधहृत् ॥७ वाद्यादिशब्दमाल्यादिगन्धद्वारादिरूपकैः । चिौरारोहदुत्साहस्तं विशेनिःसहीगिरा॥८ क्षालिताङ्घ्रिस्तथैवान्तः प्रविश्यानन्दनिर्भरः। त्रिःप्रदक्षिणयन्नत्वा जिनं पुण्याः स्तुतोः पठन् ॥९ सेयमास्थायिका सोऽयं जिनस्तेऽमी सभासदः । चिन्तयन्निति तत्रोच्चैरनुमोदेत धार्मिकान् ॥१० अथेर्यापथसंशुद्धि कृत्वाऽभ्यच्यं जिनेश्वरम् । श्रुतं सूरिं च तस्याग्रे प्रत्याख्यानं प्रकाशयेत् ॥११ हैं इनमें हर्ष विषादसे लाभ नहीं -इस प्रकार चिन्तवन करता हुआ देवदर्शनके लिए जिनालयको जावे ॥५।। अपनी सम्पत्तिके अनुसार अरिहन्तादिककी पूजाके साधनभूत जल गन्धादिकको ग्रहण करके आगे चार हाथ जमीन देखता हुआ गमन करनेवाला देशसंयमी श्रावक मुनिके समान आचरण करता है । भावार्थ--अपनी सम्पत्तिके अनुसार पूजनको सामग्री लेकर चार हाथ आगे जमोन देखता हुआ ईर्यासमितिपूर्वक दर्शनके हेतु मन्दिरजीको जानेवाला देशसंयमो ईर्यासमितिपालक यतिके समान मालूम होता है ॥६॥ जगत्के प्राणियोंकी निद्राको दूर करनेवाले सूर्यको देखकर अरिहन्त भगवान् सम्बन्धी बहिरात्मा प्राणियोंकी मोहरूपी निद्राको दूर करनेवाले ज्ञानमय अथवा वचनमय तेजको स्मरण करनेवाले श्रावकके जिनेन्द्र भगवान्के चैत्यालयके शिखरमें लगी ध्वजाके देखनेसे उत्पन्न होनेवाला आनन्द पापनाशक हाता है। भावार्थ--उक्त विधिसे प्रातःकाल जिनमन्दिरजीको जानेवाला श्रावक सूर्यको देखकर इस प्रकार चिन्तवन करे कि जैसे सूर्य अपनी किरणोंके प्रकाशसे; प्रकाशमें अपने अपने व्यवहारको सम्पादन करनेवाले प्राणियोंका मार्गदर्शक है उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् भी अपनी ज्ञानात्मक और वचनात्मक किरणोंसे संसारके बहिरात्मा प्राणियोंकी मोहनिद्राके नाशक हैं। इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले भव्यके चित्तमें भगवानके मन्दिरको ध्वजाके दर्शनसे जो आन्दोत्सव होता है उससे उसके पापोंका नाश होता है ॥७॥ नानाप्रकार और विस्मयको करनेवाले प्रभातकाल सम्बन्धी वादित्र आदिके शब्दोंके द्वारा, चम्पा गुलाब आदिके फूलोंकी गन्धके द्वारा तथा द्वारतोरण और शिखर पर बने हुए चित्रों द्वारा वृद्धिको प्राप्त हुआ है धर्माचरण सम्बन्धी उत्साह जिसका ऐसा श्रावक निःसही इस वचनके द्वारा अर्थात् निःसही इस वचनका उच्चारण करके इस जिनालयमें प्रवेश करे। भावार्थ-दर्शनार्थी श्रावक घंटा, झालर, जयघोष, स्तुति और स्वाध्याय आदिके शब्दसे तोरणकी वन्दनवार आदिमें लगे हए नानाप्रकारको पुष्पमालाओंसे, धूप आदिकी सुगन्धसे तथा प्रवेशद्वार, खम्भों वा शिखर पर अंकित नानाप्रकारके चित्रोंसे अपने अन्तःकरणमें उत्साहसम्पन्न होकर निःसही निःसही निःसहो इसप्रकार तीन बार उच्चारण करता हुआ जिनमन्दिर में प्रवेश करे ॥८॥ धोये हैं पैर जिसने ऐसा और आनन्दके द्वारा व्याप्त हो गया है सम्पूर्ण अङ्ग जिसका ऐसा यह श्रावक उसी प्रकार अर्थात् निःसही इस शब्दको उच्चारण करता हुआ ही चैत्यालयके भीतर प्रवेश करके पुण्यास्रवको करनेवाली स्तुतियोंको पढ़ता हुआ तोन बार प्रदक्षिणा करे ।।९।। यह चैत्यालयकी भूमि वही जिनागम प्रसिद्ध समवसरण है, ये प्रतिमार्पित जिनेन्द्र वही अरिहन्त तथा ये जिनाराधक भव्य वे ही बारह सभाओंके सभासद हैं इस प्रकार विचार करनेवाला श्रावक उस चैत्यालयमें धर्माराधक भव्योंको बार बार अभिनन्दन करे ||१०|| इसके अनन्तर यह महाश्रावक ईर्यापथशुद्धि अथवा प्रतिक्रमणको करके जिनेन्द्र भगवान्को, जिनवाणीको और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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