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षष्ठ अध्याय
ब्राह्म मुहर्त उत्थाय वृत्तपञ्चनमस्कृतिः। कोऽहं को मम धर्मः किं व्रतं चेति परामशेत ॥१ अनादौ बम्भ्रमन् घोरे संसारे धर्ममाहतम् । श्रावकीयमिमं कृच्छ्रात किलापं तदिहोत्सहे ॥ इत्यास्थायोत्थितरतल्पाच्छुचिरेकायनोऽर्हतः । निर्मायाष्टतयोमिष्टि कृतिकर्म समाचरेत् ॥३ समाध्युपरमे शान्तिमनुध्याय यथाबलम् । प्रत्याख्यानं गृहीत्वेष्टं प्राथ्यं गन्तुं नमेत्प्रभुम् ॥४ साम्यामृतसुधौतान्तरात्मराजज्जिताकृतिः । दैवादैश्वर्यदौर्गत्ये ध्यायन्गच्छेज्जिनालयम् ॥५
ब्राह्म मुहूर्तमें उठ करके पढ़ा है पंचनमस्कार मंत्र जिसने ऐसा श्रावक मैं कौन हूँ, मेरा धर्म कोन है और मेरा व्रत कोन है इस प्रकार चिन्तवन करे। भावार्थ-श्रावक शय्यासे ब्राह्म महतमें उठे और सर्वप्रथम पंचनमस्कार मन्त्रका स्मरण करे। फिर मैं कौन हूँ, मेरः धर्म क्या है और मेरा व्रत क्या है ? इत्यादि चिन्तवन करे ॥१॥ आगममें इस प्रकार सुना जाता है कि भयङ्कर और आदि रहित संसारमें कुटिलरीतिसे घूमनेवाले। मैंने वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित श्रावकसम्बन्धी इस धर्मको बड़ी कठिनाईसे पाया है इसलिए इस अत्यन्त दुर्लभ धर्मके विषयमें प्रमादरहित प्रवृत्त होता हूँ। भावार्थ-भयङ्कर. और पंचपरावर्तनरूप अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हुए मैंने वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित श्रावकीय धर्म बड़ी कठिनाईसे प्राप्त कर पाया है इसलिए मुझे इसमें उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति करना चाहिए ॥२।। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके शय्यासे उठा पवित्र और एकाग्रमन होता हुआ अरिहन्त भगवान्की जलगन्धादिक आठ अवयववाली पूजाको करके वन्दना आदि करणीय कार्योंको भली भांति करे। विशेषार्थ-इस प्रकार शय्यासे उठकर शौच, मुखशुद्धि और स्नान आदिकसे निवृत्त होकर एकाग्रमन होकर अरिहन्त भगवान्की पूजा करके कृति कर्म करना चाहिए । योग्य कालमें, योग्य आसनसे, योग्य स्थानमें, सामायिकके योग्य मुद्रा धारण करके, चारों दिशाओंमें तीन तीन आवर्त और एक एक नमस्कार कर अपने पदके योग्य वस्त्रादिक रखकर शेष आरम्भ और परिग्रहका त्याग करके विधिपूर्वक सामायिक आदि करना कृतिकर्म कहलाता है ॥३॥ वन्दना कादि कर्मोको करनेवाला श्रावक समाधिको निवृत्ति होनेपर शान्तिपाठको चिन्तवन करके अपनी शक्तिके अनुसार भोगोपभोग सम्बन्धी नियमविशेषको ग्रहण करके अभिलषित पदार्थको प्रार्थना करके गमन करने के लिए अरिहन्त देवको नमस्कार कर विसर्जन करे। भावार्थ-पूर्वकालमें प्राय: प्रत्येक घरमें चैत्यालय होते थे। दक्षिणमें आज भी यही प्रथा है। इसलिये पहले घरके चैत्यालयमें पूजन, सामायिक, शान्तिपाठ, इष्टप्रार्थना और विसर्जन कर पश्चात् जिनमन्दिरमें जानेका विधान किया है ॥४॥ समता परिणामरूप अमृतके द्वारा अच्छी तरह विशुद्धिको प्राप्त हुए अन्तरात्मामें देदीप्यमान है परमात्माकी मूर्ति जिसके ऐसा श्रावक ऐश्वर्य और दारिद्रय पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मके उदयसे होते हैं, इसप्रकार चिन्तवन करता हुआ जिनालयको जावे। भावार्थ-सामायिकके द्वारा जिसका अन्तःकरण भेदविज्ञान युक्त है और इसी कारण जिसके अन्तःकरण में जिनेन्द्र भगवान्की आकृति विराजमान है वह भव्य ऐश्वर्य ( अमीरी) और दारिद्रय ( गरीबी ) दोनों देवी लीलाके फल
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