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सागारधर्मामृत
हिंसार्थत्वान्न भूगेहलोहगोऽश्वादि नैष्ठिकः । न दद्याद् ग्रहसङ्क्रान्तिश्राद्धादो वा सुहग्दुहि ॥५३ त्याज्याः सचित्तनिक्षेपोऽतिथिदाने तदावृतिः । सकालातिक्रम-परव्यपदेशश्च मत्सरः ॥५४ एवं पालयितुं व्रतानि विदधच्छोलानि सप्तामलान्यगूर्णः समितिष्वनारतमनो दीप्राप्तवाग्दीपकः । वैयावृत्यपरायणो गुणवतां दीनानतोवोद्धरं
चर्यां दैवसिकीमिमां चरति यः सः स्यान्महाश्रावकः ॥५५
प्राणियोंकी हिंसा में निमित्त होने से भूमि, घर, शस्त्र, गौ, बैल, घोड़ा, वगैरह हैं आदि में जिनके ऐसे कन्या, सुवर्ण और अन्न आदि पदार्थों को दान नहीं देवे । और जिनको पवं माननेसे सम्यक्त्वका घात होता है ऐसे ग्रहण, संक्रान्ति तथा श्राद्ध वगैरह में अपने द्रव्यका दान नहीं देवे । भावार्थ-ग्रहण और संक्रान्ति आदिके अवसर पर दिया गया दान मिथ्यात्वका पोषक है तथा भूमि, घर, गाय और कन्या आदिका दान देनेसे हिंसा होती है इसलिये नैष्ठिकको इनका दान नहीं करना चाहिए ||२३|| अतिथिसंविभागव्रत के पालक श्रावक द्वारा अतिसंविभागव्रतमें देयवस्तुका सचित्त में रखना, सचित्तके द्वारा ढकना और कालातिक्रम वा परव्यपदेश सहित मात्सर्य ये पाँच अतिचार छोड़े जाना चाहिए । विशेषार्थ – सचित्तनिक्षेप, सचित्तावृति, कालातिक्रम, परव्यपदेश और मत्सर ये पाँच अतिथिसंविभागव्रतके अतिचार हैं । व्रतीको इनका त्याग करना चाहिए । सचित्त पत्ते आदि पर रखे भव - पानादि पात्रको देना सचित्त निक्षेप अतिचार है । सचित्तावृति - सचित्त पदार्थ से देय वस्तुके ढकनेको सचित्तावृति कहते हैं । कालातिक्रम - आहारके समयकी टालना कालातिक्रम कहलाता है । यह अतिचार अकाल में यतियोंको आहार देनेके अभिप्रायसे हारापेक्षण करनेसे होता है । परव्यपदेश - देयवस्तु परकीय है, इस प्रकार व्याजसे कहना अथवा अपने इष्टजनों को भी पुण्यलाभ हो इस अभिप्रायसे देयवस्तु अमुक व्यक्तिकी है इस अभिप्रायसे देना भी परव्यपदेश कहलाता हैं । मत्सर - पात्र प्रतीक्षाके समय क्रोधभाव रखना जैसे 'मैं प्रतिदिन खड़ा होता हूँ, फिर भी मेरे यहाँ कोई पात्र नहीं आता । अथवा में कितनी देर से खड़ा हूँ, तो भी अभी तक कोई पात्र मेरे यहाँ नहीं आया' ऐसी भावना रखना मत्सर कहलाता है । अथवा यतिको पड़गाह लेने पर भी अपने पास रखे हुए देय पदार्थका समर्पण नहीं करना भी मत्सर है । अर्थात् देने पर भी आदर नहीं करना, अन्यदाता के दानको नहीं सह सकना तथा दूसरेके दानमें वैमनस्य रखना मत्सर अतिचार है ||५४|| इस प्रकार पाँचों अणुव्रतोंको पालन करने के लिए अतिचार रहित सातों शोलोंको पालन करनेवाला ईर्ष्या आदि पाँचों समितियों में उद्यत निरन्तर मनमें देदीप्यमान है आपके वचन से उत्पन्न होनेवाला श्रुतज्ञान रूपी दीपक जिसके ऐसा गुणी पुरुषोंके वैय्यावृत्य करने में तत्पर तथा पाक्षिकादिककी अपेक्षा अधिक रूपसे दीन पुरुषोंको दुःखसे छुड़ाने वाला जो गृहस्थ आगे के अध्याय में कही जाने वाली इस दिनरात सम्बन्धी चर्याको पालन करता है वह गृहस्थ महाश्रावक कहलाता है । विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन सहित, अणुव्रतों का निरतिचार पालक, जिनागमका उपासक, वैयावृत्यपरायण, दीनोद्धारक और षष्ठाध्यायोक्त दिनचर्याका पालक व्यक्ति इन्द्रादिकसे पूज्य महीश्रावकपद कालादि लब्धिके निमित्तसे किसी महान् व्यक्तिको हो प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शनशुद्धत्व, व्रतभूषित्व, जिनागमसेवित्व, निर्मलशीलनिधित्व, संयमनिष्ठत्व, गुरुशुश्रूषकत्व, दयापरत्व और दिनचर्यापालकत्व ये आठ गुण जिसके होते हैं वह महाश्रावक कहलाता है । अणुव्रत और महाव्रत यदि समितिसहित हों तो संयम कहलाते हैं और समिति रहित हों तो विरत कहलाते हैं ॥५५॥
इति पञ्चमोऽध्यायः ।
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