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________________ श्रावकाचार-संग्रह पञ्चसूनापरः पापं गृहस्थः सञ्चिनोति यत् । तदपि क्षालयत्येव मुनिदानविधानतः ॥४९ यत्कर्ता किल वज्रजङ्कनृपतिर्यकारयित्री सती, श्रीमत्यप्यनुमोदका मतिवराव्याघ्रादयो यत्फलम् । आसेदुर्मुनिदानतस्तदधुनाऽऽप्याप्तोपदेशाब्दक व्यक्तं कस्य करोति चेतसि चमत्कारं न भव्यात्मनः ॥५० कृत्वा माध्याह्निकं भोक्तुमुधुक्तोऽतिथये पदे । स्वार्थ कृतं भक्तमिति, ध्यायन्नतिथिमीक्षताम् ॥५१ द्वीपेष्वर्षतृतीयेषु पात्रेभ्यो वितरन्ति ये । धन्या ते इति च ध्यायेदतिथ्यन्वेषणोद्यतः ॥५२ के फलकी विशेषता है। विशेषार्थ-दानका फल दाता और पात्र दोनोंको मिलता है। दानके प्रभावसे दाताके पुण्यराशिकी प्राप्ति होती है और दानके ग्रहणसे पात्रोंके रत्नत्रयकी उन्नति होती है। भोगमित्व, देवत्व, चक्रवर्तित्व, पारिवाज्य आदि लोगोंको विस्मयमें डालनेवाले अभ्युदय और अन्त में निर्वाण पदकी प्राप्ति यह सब दानके फलकी विशेषता है। दानके निमित्तसे मोक्ष मार्गस्थ साधुओंके शरीरकी स्थिति रहती है और उसके कारण वे अपनी आत्मविशुद्धि करके रत्नत्रयका पूर्ण विकास करते हैं। दानका मुख्यफल अन्त में मोक्षप्राप्ति और उसके पहिले विश्वमें आश्चर्य पैदा करनेवाले अभ्युदय हैं ॥४८॥ पाँचसूनामें प्रवत्त जो गृहस्थ जिस पापको सञ्चित करता है वह गृहस्थ मुनियोंके लिए विधिपूर्वक दान देनेसे उस पापको भी अवश्य नष्ट कर देता है। विशेषार्थ-हिंसात्मक पंचसूनारूप क्रियाओंमें प्रवृत्त रहनेवाला गृहस्थ जिन पापोंका संचय करता है, वे सब पाप मुनिदानके प्रभावसे प्रक्षालित ( दूर ) हो जाते हैं। अपिशब्दके विस्मय और समुच्चय दो अर्थ हैं। विस्मयार्थकतासे यह सूचित होता है कि-केवल मुनिदान के प्रभावसे गृहस्थके आरम्भजनित सब पापोंका नाश होता है । और समुच्चयार्थकतासे यह निष्कर्ष निकलता है कि आरम्भजनित पापोंका भी नाश होता है और व्यापारादि जनित पापोंका भी नाश होता है ॥४९॥ आगममें इस प्रकार सुना जाता है कि मुनियोंके लिए दान देनेसे दान देनेवाला वज्रजङ्क नामका राजा, उस दानको करानेवाली श्रीमती नामकी सती तथा उस दानकी अनुमोदना करनेवाले मतिवरमंत्री और व्याघ्र आदिक जिस फलको प्राप्त हुए वह मुनिदानका फल इस समय भी आप्तके उपदेशरूपी दर्पणके द्वारा व्यक्त होता हुआ अर्थात् प्रतीतिका विषय होता हुआ किस भव्य जीवके हृदयमें आश्चर्य नहीं करता है । भावार्थ-उत्पलखेट नामके राजा वज्रजङ्गने दान देकर, पुण्डरोकणी नगरीके वज्रदन्त चक्रवर्तीकी पुत्री एवं उसकी रानी श्रीमतीने दानकी प्रेरणा करके और दान देते समय उपस्थित मतिवर नामक मन्त्री, - आनन्दनामक पुरोहित, अकंपन नामके सेनापति, धनमित्र नामक सेठ तथा व्याघ्र, सूकर, वानर और नकुल इन पुरुष तथा तिर्यंचोंने दानकी अनुमोदना करके जो फल पाया है, वह आगमरूपी दर्पणके द्वारा आज भी जगत्प्रसिद्ध है। ऐसा दानका फल किस भव्यात्माके चित्तमें चमत्कार पैदा नहीं करता ॥५०॥ अतिथिसंविभागवतको पालन करनेवाला श्रावक मध्याह्नकालमें होनेवाले स्नान आदि सम्पूर्ण कार्योंको करके भोजन करने के लिए उद्यत या तत्पर होता हुआ अपने लिए बनाये गये भोजनको मैं अतिथिके लिए दूं इस प्रकार चिन्तवन करता हुआ अतिथिकी प्रतीक्षा करे ॥५१|| अतिथिकी खोज करने में तत्पर हुआ श्रावक जो गृहस्थ ढाई द्वीपमें पात्रोंके लिए विधिके अनुसार दान देते हैं वे गृहस्थ धन्य हैं इस प्रकार भी चिन्तवन करे ॥५२॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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