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________________ सागारधर्मामृत पिण्डशुद्ध्युक्तमन्नादिद्रव्यं वैशिष्ट्यमस्य तु । रागाद्यकारकत्वेन रत्नत्रयचयाङ्गता ॥४६ भक्तिश्रद्धासत्त्वतुष्टिज्ञानलौल्यक्षमागुणः । नवकोटीविशुद्धस्य दाता दानस्य यः पतिः ॥४७ रत्नत्रयोच्छयो भोक्तुर्दातुः पुष्योच्चयः फलम् । मुक्त्यन्तचित्राभ्युदयप्रदत्वं तद्विशिष्टता ॥४८ जब पात्र अपने द्वारपर आता है तब भक्ति पूर्वक प्रार्थना करना कि भो गुरो ! मुझपर कृपा कीजिये, नमोऽस्तु नमोऽस्तु, नमोस्तु, ठहरिये, ठहरिये, ठहरिये, इस प्रकारसे आहारके लिए पात्रका स्वागत करके स्वीकार करना प्रतिग्रह कहलाता है । जब पात्र अपने यहाँ भोजन ग्रहण करना स्वीकार कर ले तब उसे अपने घरके भीतर ले जाकर निर्दोष, निर्बाध उच्चस्थानपर बिठाना उच्चस्थान कहलाता है । भक्तिपूर्वक पात्र के पैर धोना पादप्रक्षालन कहलाता है । और अक्षत जल आदिकसे पूजा करना पूजा कहलाती है । पञ्चाङ्ग नमस्कार करना नमस्कार कहलाता है। आर्त वा रौद्र ध्यानरहित मनकी अवस्थाको मनः शुद्धि, परुष वा कर्कश आदि वचन नहीं बोलनेको वचनशुद्धि तथा शरीरसे संयत आचार करनेको कायशुद्धि कहते हैं । यत्नपूर्वक शोध करके पिण्डसम्बन्धी दोषोंसे रहित आहारका नाम अन्नशुद्धि कहलाती है || ४५|| धर्मामृत के पिण्डशुद्धि नामक पञ्चम अध्याय में कहा गया भक्त-पान देने योग्य द्रव्य कहलाता है और रागद्वेष आदिको उत्पन्न करने वाला नहीं होनेसे रत्नत्रयकी वृद्धिका कारणपना इस देने योग्य द्रव्यकी विशेषता कहलाती है । भावार्थ - अनगारधर्मामृत के पाँचवें अध्यायके पिंडशुद्धि नामक अधिकारमें बताये हुए चौदह दोषरहित आहार, औषधि, आवास, पुस्तक आदि द्रव्य पात्र के लिए देय पदार्थ हैं । और वे देय पदार्थ पात्र के लिए रागद्वेष, असंयम, मद तथा दुख आदिकका कारण न हों किन्तु रत्नत्रयकी वृद्धिमें कारण हों यह देय द्रव्य की विशेषता है || ४६|| भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य और क्षमा इन सात असाधारण गुण सहित जो श्रावक मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना इन नौ कोटियोंके द्वारा विशुद्ध दानका अर्थात् देने योग्य द्रव्यका स्वामी होता है वह (दाता) कहलाता है । विशेषार्थ - मन, वचन और कायको कृत, कारित और अनुमोदनासे गुणा करनेपर विकल्प होते हैं उनको 'नवकोटि' कहते हैं । अथवा देयशुद्धि और उसके लिए आवश्यक दातृशुद्धि तथा पात्रशुद्धि ये तोन, दातृशुद्धि और उसके लिए आवश्यक देय और पात्रकी शुद्धि ये तीन तथा पात्रशुद्धि और उसके लिए उपयोगी पड़नेवाली देय और दाताकी शुद्धि ये तीन प्रकारसे भी 'नवकोटि' मानी गई हैं । इस नवकोटिकी विशुद्धता जिस दानमें होती है उसे नवकोटि विशुद्ध दान कहते हैं । इस नवकोटि विशुद्ध दानका जो पति है अर्थात् उपयोग करनेवाला है उसे दाता कहते हैं | भक्ति, श्रद्धा, सत्त्व, तुष्टि, ज्ञान, अलौल्य और क्षमा ये सात दाताके गुण हैं । १ - पात्रगत गुणके अनुरागको भक्तिगुण कहते हैं । २ - पात्र को दिये गये दानके फलमें प्रतीति रखनेको श्रद्धा कहते हैं । ३ – जिससे दाता अल्प धनो होकर भी अपनी दानकी वृत्तिसे बड़े-बड़े धनाढ्योंको भी आश्चर्यान्वित करता है उसे सत्त्व कहते हैं । ४ – देते समय अथवा दिये जानेपर जो हर्ष होता है उसे तुष्टि कहते हैं । ५ - देने योग्य द्रव्यादिककी जानकारी रखनेको ज्ञान कहते हैं । ६ - दुर्निवार क्रोधादिकके कारण उपस्थित होने पर भी क्रोध नहीं करना क्षमागुण कहलाता है । ७– सांसारिक फलकी इच्छाका नहीं रखना अलौल्य कहलाता है ॥४७॥ १९ दान की गई वस्तु भोक्ताके रत्नत्रयकी वृद्धि होना और दान देनेवाले श्रावकके पुण्यके समूहकी प्राप्ति होना अर्थात् बहुत पुण्यास्रव होना दानका फल है । तथा मोक्ष है अन्तमें जिसके ऐसे नानाप्रकार के और संसारमें आश्चर्यको करनेवाले इंद्रादिक पद स्वरूप अभ्युदयोंको देना दान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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