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________________ सागारधर्मामृत इतः शमश्रीः स्त्री चेतः कर्षतो मां जयेन्नु का । आ ज्ञातमुत्तरैवात्र जेत्रो या मोहराट्चमूः ॥३४ चित्रं पाणिगृहीतीयं कथं मां विष्वगाविशत् । यत्पृथग्भावितात्माऽपि समवेम्यनया पुनः ॥३५ स्त्रीतश्चित्त निवृत्तं चेन्ननु वित्तं किमोहसे । मृतमण्डनकल्पो हि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः ॥३६ इति च प्रतिसन्दध्यादुद्योगं मुक्तिवर्मनि । मनोरथा अपि श्रेयोरथा: श्रेयोऽनुबन्धिनः ॥३७ क्षणे क्षणे गलत्यायुः कायो ह्रसति सौष्ठवात् । ईहे जरां नु मृत्युं नु सध्रीची स्वार्थसिद्धये ॥३८ क्रियासमभिहारोऽपि जिनधर्मजुषो वरम् । विपदा सम्पदां नासौ जिनधर्ममुचस्तु मे ॥३९ लब्धं यदिह लब्धव्यं तच्छामण्यमहोदधिम् । मथित्वा साम्यपीयूषं पिबेयं परदुर्लभम् ॥४० पुरेऽरण्ये मणौ रेणौ मित्रे शत्रौ सुखेऽसुखे । जीविते मरणे मोक्षे भवे स्यां समधोः कदा ॥४१ इस ओरसे शान्तिरूपी लक्ष्मी और इस ओरसे स्त्री मेरेको अपनी-अपनी तरफ खींचती हैं। अथवा अच्छी तरहसे मालूम हो गया कि इन दोनोंमें स्त्री ही विजयशील है जो मोहरूपी राजाकी सेना है ॥३४।। बड़ा भारी आश्चर्य है कि हाथके द्वारा ग्रहण की गई यह विवाहिता स्त्री किस प्रकार से मेरेमें चारों ओरसे प्रविष्ट हो गई है क्योंकि पृथक् रूपसे बार-बार चिन्तवन किया है आत्माका जिसने ऐसा मैं बार-बार इस स्त्रीके साथ तादात्म्य सम्बन्धको प्राप्त होता हूँ ॥३५॥ हे मन, यदि तू निश्चय करके स्त्रीसे निवृत्त हो गया तो फिर धनग्रहणको क्यों चाहेगा? क्योंकि स्त्रीकी इच्छा नहीं रहनेपर धनको ग्रहण करना अथवा धनको इच्छा करना मरे हुए मनुष्योंको भूषण पहिनानेके समान व्यर्थ है ॥३६॥ वक्ष्यमाण प्रकारसे भी यह श्रावक मोक्षमार्गके विषयमें उद्योग या उत्साहको बार-बार लगावे क्योंकि मोक्ष ही है रथ जिन्होंका ऐसे अर्थात् मोक्षविषयक मनोरथ भी अभ्युदयके सम्पादन करनेवाले या स्वर्गादिकको देनेवाले होते हैं ॥३७॥ आयुकर्म क्षण-क्षणमें अर्थात् प्रतिसमयमें नाशको प्राप्त हो रहा है और सौन्दर्य एवं स्वार्थक्रियाके करनेकी सामर्थ्यसे शरीर ह्रासको प्राप्त हो रहा है इसलिए मैं अपने इच्छित अर्थकी सिद्धिके लिए सहायभूत बुढ़ापेकी इच्छा करूं क्या ? अथवा मृत्युको चाहूँ क्या ? भावार्थ-व्यावहारिक जीवन में स्वार्थकी सिद्धिके लिए आयु और शरीर प्रधान साधन माने जाते हैं । परन्तु आयु अञ्जलिके जलके समान प्रतिक्षण क्षीण हो रही है । तथा काय भी अपने सामर्थ्यसे प्रतिक्षण शिथिल हो रहा है। कायकी यह हीनता बुढ़ापेके लाने में प्रवृत्त हो रही है। तो मरण और बुढ़ापा इन दोनोंमेंसे किसको अपने स्वार्थका सहायक समझू । अर्थात् वास्तवमें इनमें कोई भी मुझे स्वार्थका सहायक नहीं दिखता, इस प्रकार भी चिन्तवन करे ॥३८॥ जिनधर्मको प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले मेरे विपत्तियोंका बार-बार आना भी श्रेष्ठ है, किन्तु जिनधर्मसे विमुख मेरे सम्पत्तियोंका यह बार-बार आना श्रेष्ठ नहीं है। भावार्थ-जिनधर्मको प्रीतिपूर्वक सेवन करते हुए यदि शारीरिक वा मानसिक दुःख और परीषह तथा उपसर्गकी मुझे पुनःपुनः प्राप्ति होवे तो उसे मैं अच्छा मानता हूँ। किन्तु जैनधर्मसे विमुख रहनेपर इन्द्रिय और मानसिक सुख साधनोंकी बारम्बार प्राप्तिको मैं अच्छा नहीं मानता हूँ। श्रावक इस प्रकार श्रद्धाकी दृढ़ता-द्योतक भावना भावे ॥३९।। इस मनुष्यजन्म अथवा इस गृहस्थाश्रममें जो प्राप्त करना चाहिये था वह मैंने प्राप्त कर लिया इसलिए मुनिव्रत रूपी महासमुद्रको मथ करके दूसरोंके लिए अत्यन्त दुर्लभ समतारूपी अमृतको मुझे पीना चाहिये । भावार्थ-मुझे इस गृहस्थाश्रम तथा मनुष्यभवमें जो कुछ प्राप्त करने योग्य था वह मैंने प्राप्त कर लिया है, अब तो यही भावना है कि मैं मुनित्वरूपी महोदधिका मथनकर परम दुर्लभ समताभावरूपी अमृतको पीऊं ॥४०॥ मैं नगरके विषयमें, वनके विषयमें, मणिके विषयमें, धूलिके विषयमें, मित्रके विषयमें, शत्रुके विषयमें, सुखके विषयमें, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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