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________________ ६८ श्रावकाचार-संग्रह मोक्षोन्मुखक्रियाकाण्डविस्मापितबहिर्जनः । कदा लप्स्ये समरसस्वादिनां पंक्तिमात्मा ॥४२ शून्यध्यानकतानस्य स्थाणुबुद्धचानडुन्मृगैः । उद्धृष्यमाणस्य कदा यास्यन्ति दिवसा मम ॥४३ घन्यास्ते जिनदत्ताखाः गृहिणोऽपि न येऽचलन् । तत्ताहगुपसर्गोपनिपाते जिनधर्मतः ॥७४ इत्याहोरात्रिकाचारचारिणि व्रतधारिणि । स्वर्गश्रीः क्षिपते मोक्षशीर्षयेव वरस्रजम् ॥४५ दुःखके विषयमें, जीवनके विषयमें, मरणके विषयमें, मोक्षके विषयमें और संसारके विषयमें समान बुद्धिवाला कब होऊंगा ॥४१॥ मोक्षमार्गमें प्रवृत्त मुनियोंकी करणीय क्रियाओंके समूहको पालन करनेसे चकित कर दिया है बहिरात्मा लोगोंको जिसने ऐसा तथा आत्मदर्शी होता हुआ मैं समतारूपी रसका आस्वादन करनेवाले मुमुक्षुओंकी श्रेणोको किस समय प्राप्त होऊंगा ॥४२॥ निर्विकल्पक समाधिमें लीन होनेवाले तथा ठूठकी बुद्धिसे गाय बैल और मृगोंके द्वारा निर्भयतासे खुजाये जाने वाले मेरे दिन किस समय बीतेंगे। भावार्थ-जब मैं तत्त्वज्ञान और वैराग्य सम्पन्न होकर नगरके बाहर या वनमें कायोत्सर्ग धारण करूं और निर्विकल्पक समाधिमें लीन होऊँ उस समय अपनी इच्छानुसार विचरनेवाले ग्रामीण वृषभादि जानवर तथा वन्य मृगादि पशु मुझे स्थाणु (ठूठ) समझ कर मेरी देहसे अपनी खाज खुजावें, योगाभ्यासकी परमसीमाको प्राप्त ऐसे दिन मेरे कब आगे ? इस प्रकारसे श्रावकको निद्रा-विच्छेदके समय विचार करना चाहिए ॥४३॥ जो गृहस्थ होते हुए भी उन शास्त्रप्रसिद्ध और असाधारण उपसर्गोंके आनेपर भी जिनधर्मसे विचलित नहीं हए वे सेठ जिनदत्त आदि महापुरुष प्रशंसनीय हैं। भावार्थ-प्रोषधोपवासव्रतके धारी आगमप्रसिद्ध वे जिनदत्त सेठ तथा वारिषेणकुमार आदि श्रावक धन्य हैं, जो शस्त्र प्रहार आदि घोर उपसर्ग आनेपर भी जिनधर्म तथा जिनसेवित सामायिकसे विचलित नहीं हुए ॥४४॥ इस प्रकार दिन रात सम्बन्धी आचार को आचरण करनेवाले व्रतधारी पुरुषके गलेमें स्वर्गरूपी लक्ष्मी मोक्षरूपी लक्ष्मीसे ईर्ष्यासे ही वरमालाको डालती है । भावार्थ-इस प्रकारको दिनचर्याके अनुसार चलनेवाले व्रतप्रतिमाके धारी श्रावकके गलेमें मोक्षश्रीके साथ ईर्ष्यासे ही मानो स्वर्गश्री वरमाला डालती है। अर्थात् उसे लक्ष्मी प्राप्त होती है ।।४५॥ इति षष्ठोऽध्यायः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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