SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय सुदृङमूलोत्तरगुणग्रामाभ्यासविशुद्धधीः । भस्त्रिसन्ध्यं कृच्छेऽपि साम्यं सामायिकी भवेत् ॥१ कृत्वा यथोक्तं कृतिकर्म सन्ध्यात्रयेऽपि यावनियमं समाधेः। यो वज्रपातेऽपि न जात्वपैति, सामायिकी कस्य न स प्रशस्यः ॥२ आरोपितः सामायिकवतप्रासादमूर्धनि । कलशस्तेन येनैषा धूरारोहि महात्मना ॥३ स प्रोषधोपवासी स्याद्यः सिद्धः प्रतिमात्रये । साम्यान्न च्यवते यावत् प्रोषधानशनवतम् ॥४ त्यक्ताहाराङ्गसंस्कारव्यापारः प्रोषधं श्रितः । चेलोपसृष्टमुनिवद् भाति नेदीयसामपि ॥५ यत्सामायिक शीलं तद्वतं प्रतिमावतः । यथा तथा प्रोषधोपवासोऽपीत्यत्र युक्तिवाक ॥६ निशां नयन्तः प्रतिमायोगेन दुरितच्छिदे । ये क्षोभ्यन्ते न केनापि तान्नुमस्तुर्यभूमिगान ॥७ निरतिचार सम्यक्त्व और मूलगुण तथा उत्तरगुणोंके अभ्याससे पवित्र बुद्धिवाला तथा उपसर्ग और परीषहके आनेपर भी तीनों सन्ध्याओंमें सामायिकको सेवन करनेवाला व्रती श्रावक सामायिक प्रतिमाधारी कहलाता है ॥१॥ जो व्यक्ति तीनों ही संध्याओंमें आगमोक्त विधिसे वन्दनाकर्मको करके सामायिककी प्रतिज्ञाका काल समाप्त होनेतक वज्रके गिरनेपर भी समाधिसे कभी भी च्युत नहीं होता है वह सामायिक प्रतिमावाला श्रावक किसके प्रशंसनीय नहीं है। अर्थात् सभी के द्वारा प्रशंसाका पात्र है। विशेषार्थ-मन, वचन और कायकी एकाग्रताको योग, समाधि या भाव सामायिक कहते हैं । श्लोकमें दिया गया अपिशब्द उस साम्यभावका द्योतक है जिसके कारण भयंकर उपसर्गोंके आनेपर भी सामायिकी समतासे च्युत नहीं होता ॥२॥ जिस महात्माके द्वारा यह भाव सामायिक प्रतिमारूप भार धारण किया है उस महात्माने सामायिकवत रूपी मन्दिरके शिखरपर कलश स्थापित किया ।।३॥ जो श्रावक प्रारम्भिक तीन प्रतिमाओंमें परिपक्क या निरतिचार होता हुआ जबतक प्रोषधोपवास व्रत है तबतक साम्य भावसे च्यत नहीं होता है वह प्रोषध प्रतिमाधारी कहलाता है। भावार्थ-जैसे सामायिकप्रतिमामें सामायिक करते समय समताभावोंकी आवश्यकता है उसी प्रकार प्रोषधप्रतिमामें भी १६ पहरतक समताभावकी स्थिरता आवश्यक है ॥४॥ प्रोषधप्रतिमाको पालन करनेवाला श्रावक छोड़ दिया है चारों प्रकारका आहार, शरीरसंस्कार और व्यापार जिसने ऐसा होता हुआ निकटवर्ती लोगोंके भी वस्त्रके द्वारा ढके हुए मुनिके समान प्रतीत होता है। भावार्थ-चारों प्रकारके आहारका त्यागी, स्नान, उबटन, चन्दन आदिकका लेप वा सुगन्धित वस्त्र आभरणका त्यागी तथा आरम्भ और परिग्रहका त्यागी सच्चा प्रोषधी श्रावक ब्रह्मचर्यका पालक तथा शरीरादिक ममत्वका त्यागी होनेसे निकटवर्ती लोगोंकी दृष्टिमें और खास कर अन्य अपरिचित लोगोंकी दृष्टि में वस्त्रसे ढके हुए मुनिके समान गिना जाता है ॥५।। जैसे जो सामायिक पहले व्रतप्रतिमामें शीलरूप था वही सामायिकव्रत तीसरी प्रतिमाके पालक श्रावकके व्रत हो जाता है वैसे ही प्रोषधोपवास भी जानना चाहिये। यही इस सामायिक और प्रोषधोपवास व्रतके प्रतिमारूप होनेमें समाधानवचन है ॥६॥ पाप नष्ट करनेके लिए मुनियोंके समान कायोत्सर्ग के द्वारा रात्रिको व्यतीत करनेवाले जो व्यक्ति किसीके द्वारा भी समाधिसे च्युत नहीं होते उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy