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________________ श्रावकाचार-संग्रह पर्वपूर्वदिनस्याचे भुक्त्वाऽतिथ्यशितोत्तरम् । लात्वोपवासं यतिवद् विविक्तवति श्रितः ॥३६ धर्मध्यानपरो नीत्वा दिनं कृत्वाऽऽपराह्निकम् । नयेत् त्रियामां स्वाध्याय-रतः प्रासुकसंस्तरे ॥३७ ततः प्राभातिकं कुर्यात् तद्वद्यामान दशोत्तरान् । नीत्वातिथि भोजयित्वा भुज्जीतालौल्यतः सकृत् ॥३८ जलको छोड़कर चारों प्रकारके आहारका त्याग किया जाना चाहिये और अनुपवास करने में असमर्थ श्रावकोंके द्वारा आचाम्ल तथा निर्विकृति आदि रूप आहार किया जाना चाहिये । क्योंकि शक्तिके अनुसार किया गया तप कल्याणके लिये होता है। भावार्थ-जो पूर्वोक्त उत्तम उपवास करने में असमर्थ है उसे अनुपवास करना चाहिए। और जो अनुपवास करने में भी असमर्थ है उसे आचाम्ल और निर्विकृति आदि रूप भोजन करना चाहिये। क्योंकि प्रोषधोपवास तप है । और वह अपनी शक्तिके अनुसार किया गया हो कल्याणकारी होता है। अनुपवास-प्रोषधोपवास व्रतमें जल रखकर शेष आहारोंका त्याग करना अनुपवास कहलाता है। आचाम्लाहारकांजी सहित केवल भातके भोजनको आचाम्लाहार कहते हैं। निर्विकृतिआहार-विकृति शब्दका अर्थ गोरस, इक्षुरस, फलरस और धान्यरस हैं, क्योंकि जिस आहारसे जिह्वा और मनमें विकार पैदा होता है उसे विकृति कहते हैं। अतः उपर्युक्त चारों प्रकारके रन विकृति कहलाते हैं । घी, दूध आदि गोरस हैं। शक्कर, गुड़ आदि इक्षुरस हैं। द्राक्षा आम आदिके रसको फलरस कहते हैं। और तेल, मांड आदिको धान्यरस कहते हैं। अथवा जिसको मिलाकर भोजन करनेसे भोजनमें स्वाद आता है उसको विकृति कहते हैं और इस प्रकारकी विकृतिरहित भोजनके करनेको निर्विकृति आहार कहते हैं। आचाम्लनिर्विकृत्यादि पदमें जो आदि शब्द आया है उससे एक स्थान पर बैठकर ही और रस छोड़कर भोजन करने आदिका ग्रहण किया है ।।३।। प्रोषधोपवास व्रतका पालक श्रावक पर्वके पहिले दिनके आधे भागमें, अर्थात् मध्याह्न अथवा कुछ कम ज्यादह काल में अतिथिको भोजन करानेके अनन्तर स्वयं भोजन करके नुनिके समान उपवासको करके निर्जन स्थानको आश्रित होता हुआ धर्मध्यानमें तत्पर होता हुआ दिनको बिता करके और सन्ध्याकालमें होनेवाले संध्यावन्दन आदि सम्पूर्ण कर्मोको करके स्वाध्यायमें लीन होता हुआ शुद्ध शय्यापर रात्रिको बितावे । विशेषार्थ-पर्वके पूर्व दिनके मध्याह्न कालमें अतिथिको आहारदान देकर विधिपूर्वक स्वयं भोजन करके जिस प्रकार यति यदि उन्हें अगले दिन उपवास करना होता है तो वे उपवास करनेका व्रत पूर्व दिनके भोजनके समय ही लेते हैं। उसी प्रकार धारणाके दिनके भोजनानन्तर यह भी उपवास ग्रहण करे। तथा की हई उपवासकी इस प्रतिज्ञाको आचार्य के पास जाकर प्रकट करे। उपवासकी प्रतिज्ञा लेनेके अनन्तर सावध व्यापारों, शरीरके संस्कारों और अब्रह्मका त्याग कर देना चाहिए तथा अयोग्य जन रहित और प्रासुक एकान्त स्थानका आश्रय कर वहाँपर चार प्रकारके धर्मध्यानमें लीन होकर संध्याकालको व्यतीत करे । अनन्तर सन्ध्याकाल सम्बन्धी सब कृतिकर्म करके जन्तुरहित तृणादिकसे बने हुए प्रासुक चटाई आदि पर स्वाध्याय करते हुए निद्रा और आलस्य को छोड़कर रात्रि.व्यतीत करे ॥३६-३७|| __विधिपूर्वक छह प्रहरोंको बितानेके अनन्तर प्रातःकालमें होनेवाले सम्पूर्ण आवश्यकादिक कर्मोको करे और फिर इसके अनन्तर पूर्वोक्त छह प्रहरोंके समान आगेके दश प्रहरोंको बिताकर भोजनमें आसक्तिको छोड़कर एक बार भोजन करे । भावार्थ-पर्वके दिन प्रातःकाल उठकर प्रातःकाल सम्बन्धी सब आवश्यक कर्म करे और धारणाके दिन सम्बन्धी छह प्रहरके कृतिकर्मके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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