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________________ सागारधर्मामृत पूजयोपवसन्पूज्यान् भावमय्यैव पूजयेत् । प्रासुकद्रव्यमय्या वा रागानं दूरमुत्सृजेत् ॥३९ ग्रहणास्तरणोत्सर्गानववेक्षाप्रमार्जनान् । अनादरमनैकाग्यमपि जह्यादिह व्रते ॥४० व्रतमतिथिसंविभागः पात्रविशेषाय विधिविशेषेण । द्रव्यविशेषवितरणं दातृविशेषस्य फलविशेषाय ॥४१ समान शेष दश प्रहरोंमें भी कृति कम करता हुआ व्यतीत करे । अनन्तर पारणाके दिन अतिथिको आहार देकर आसक्तिका त्याग कर एक बार भोजन करे ॥३८॥ उपवास करनेवाला श्रावक भावमयी अथवा प्रासुकद्रव्यमयी पूजाके द्वारा ही देव, शास्त्र और गुरुको पूजे तथा रागके कारणोंको दूर छोड़े। भावार्थ-उपवासके दिन उपवास करनेवाला श्रावक भावपूजन करे अथवा प्रासुक द्रव्यसे द्रव्यपूजन करे । किन्तु इन्द्रिय और मनको लोलुपता बढ़ानेवाले गीत और नृत्य आदि रागवर्द्धक साधनोंका त्याग करे। भवितपूर्वक देव, शास्त्र और गुरुके गुणोंका स्मरण करना भावपूजा है । यह भावपूजा प्रोषधोपवासीके सामायिकमें निरत रहनेके कारण सहज सिद्ध है । क्योंकि द्रव्यपूजा का भी साध्य (फल) भावपजा है । परन्तु जो इसमें असमर्थ है वह प्रासुक अक्षतादिके द्वारा द्रव्यपूजा करे ।।३९।। नैष्ठिक श्रावक इस प्रोषधोपवास नामक व्रतमें नहीं है चक्षुके द्वारा देखना तथा कोमल उपकरणके द्वारा साफ करना जिनमें ऐसे उपकरणादिकके ग्रहणको, बिछौनाके बिछानेको, मलमूत्रादिकके त्यागनेको, अनादरको और अनैकाग्यको छोड़े। विशेषार्थ-अनवेक्षाप्रमाजितग्रहण, अनवेक्षाप्रमार्जितास्तरण, अनवेक्षाप्रमाजितोत्सर्ग, अनादर और अनैकाग्य ये पांच प्रोषधोपवास व्रतके अतिचार हैं। अनवेक्षाप्रमार्जितग्रहण-जन्तु हैं या नहीं इस प्रकार चक्षुके द्वारा अवलोकन करनेको अवेक्षा कहते हैं। कोमल उपकरणसे स्थानादिकके शोधनेको प्रमाणित कहते हैं। पूजाके उपकरण और स्वाध्यायके लिए शास्त्र आदिकको बिना देखे वा बिना शोधे ग्रहण करना अनवेक्षाप्रमाजितग्रहण नामका अतीचार है। उपलक्षणसे बिना देखे और बिना शोधे हुए उनको रखना भी अतीचार होता है। इसी प्रकार आस्तरण अर्थात् बिछौना आदिका बिना देखे और बिना शोधे धरना अनवेक्षाप्रमार्जितास्तरण नामका अतोचार है। बिना देखे और बिना शोधे किसी जगहपर मलमूत्र आदिका विसर्जन करना अनवेक्षाप्रमाजितोत्सर्ग नामका अतीचार है । यहाँपर नहीं देखना और नहीं शोधना तो अविधि ( अनाचार ) है और यद्वा तद्वा देखना और यद्वा तद्वा शोधना अतोचार है। यह अर्थ अनवेक्षा और अप्रमार्जन शब्दोंमें कुत्सा अर्थमें नञ्समासके करनेसे निकलता है। जैसे कि अब्राह्मण पदमें किये गये नसमासका अर्थ ब्राह्मणका अभाव नहीं है, किन्तु कुत्सित ब्राह्मण है। वैसे ही अनवेक्षा और अप्रमाजन शब्दमें भी कुत्सित रीतिसे देखना और शोधना अतिचार है। बिल्कुल नहीं देखना वा बिल्कुल नहीं शोधना अतिचार नहीं, अनाचार हैं। अनादर-क्षुधादिकको वेदनासे प्रोषधोपवास व्रतमें अथवा अन्य आवश्यक कर्ममें उत्साहका न होना अनादर नामका अतिचार है। अनैकाग्न्य-क्षुधादिककी वेदनाके कारण प्रोषधोपवासव्रतमें या अन्य आवश्यक कर्ममें चित्तका एकाग्र नहीं रहना अनेकाग्य नामका अतिचार है ॥४०॥ विशेष दाताका विशेष फलके लिए विशेष विधिके द्वारा विशेष पात्रके लिए विशेष द्रव्यका दान करना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है। विशेषार्थ-विशेष दाता द्वारा विशेष फलके लिए विशेष विधिके द्वारा विशेष पात्रके लिए विशेष द्रव्यका दान करना अतिथिसंविभाग कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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